Holi Songs: आधुनिकता की दौड़ में गुम हो गई पारंपरिक होली गीतों की मधुर आवाज

आधुनिकता की दौड़ में होली की पारंपरिक कर्णप्रिय गीतों की मधुर आवाज धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है। आधुनिकता की दौड़ में जहां तमाम लोक परंपराएं विधाएं और संस्कृतियों का लोप हुआ है वही देश व खासकर पूर्वी भारत के सबसे बड़ा त्योहार होली अब सिमटता सा नजर आने लगा है।

Post Published By: डीएन ब्यूरो
Updated : 10 March 2020, 10:57 AM IST

नई दिल्लीः समय के साथ-साथ लोगों की पसंद और रहन-सहन भी बदलता जा रहा है। इसका असर अब त्योहारो पर भी नजर आने लगा है। आधुनिकता की दौड़ में होली की पारंपरिक कर्णप्रिय गीतों की मधुर आवाज धीरे-धीरे खोती जा रही है। आधुनिकता की दौड़ में जहां तमाम लोक परंपराएं विधाएं और संस्कृतियों का लोप हुआ है वही देश और खासकर पूर्वी भारत के सबसे बड़ा त्योहार होली अब सिमटता सा नजर आने लगा है। 

होली के दौरान पारंपरिक कर्णप्रिय गीतों की मधुर आवाज धीरे-धीरे गांव घरों में कम सुनाई पड़ने लग गयी है। एकता और भाईचारा के प्रतीक इस त्योहार में अब पौराणिक प्रथाएं पूरी तरह गौण हो चुकी हैं। इसके स्वरूप और मायने भी बदल चुके हैं। बसंत पंचमी के दिन से शुरू होकर लगातार 40 दिन तक चलने वाले इस लोक पर्व का त्योहार होली अब महज कुछ घंटों में सिमटकर रह गया। यह त्योहार पहले होलिका दहन के एक हफ्ते बाद बुढ़वा मंगल तक मनाए जाने का प्रावधान रहा करता था।

माघ माह में शुक्ल पक्ष की बसंत पंचमी श्री बसंत उत्सव के रूप में शुरू यह ऋतु फागुन मास की पूर्णिमा तक चलता है। इस दौरान लगभग एक दशक पूर्व तक गांव की गलियां तक गुलजार रहा करते थे। बसंत पंचमी के दिन से लगातार 40 दिनों तक लोग ढोल मजीरा की थाप पर पारंपरिक फाग गीत के साथ देर रात तक उत्सव मनाया करते थे। वसंतोत्सव का धुन ऐसा कि क्या बच्चे, क्या बूढ़े सब एक रंग में रंगने को आतुर रहते थे। परंपरागत गीतों के साथ “होली खेले रघुवीरा अवध में” इत्यादि के साथ रम जाते थे। आधुनिकता की ऐसी बयार बही कि शहर से लेकर गांव तक लोग इसकी आधी में डगमगा से गए। (वार्ता)

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  • 10 March 2020, 10:57 AM IST