

भारत के राष्ट्रीय ध्वज की कहानी संघर्ष, प्रतीकों और विचारों की यात्रा है। पिंगली वेंकैय्या के शुरुआती डिजाइन से लेकर अशोक चक्र के चयन तक, यह लेख तिरंगे के निर्माण की पूरी प्रक्रिया को दर्शाता है। भारत के इस तिरंगे की कहानी मात्र कुछ महीनों की नहीं, बल्कि दशकों लंबे संघर्ष, विचार-विमर्श और बदलावों का परिणाम है। जानिए हर रंग और चक्र के पीछे छिपा गहरा अर्थ।
भारत का राष्ट्रीय ध्वज
New Delhi: जब 15 अगस्त 1947 को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लाल किले से राष्ट्रीय ध्वज फहराया, तब यह केवल एक झंडा नहीं था- यह भारतीय पहचान, स्वतंत्रता और आत्मसम्मान का प्रतीक बन चुका था। लेकिन भारत के इस तिरंगे की कहानी मात्र कुछ महीनों की नहीं, बल्कि दशकों लंबे संघर्ष, विचार-विमर्श और बदलावों का परिणाम है। आइए इस स्टोरी में समझते हैं कि तिरंगा कैसे बना, इसके पीछे किन लोगों का योगदान था और इसके हर रंग का क्या अर्थ है।
भारत के राष्ट्रीय ध्वज का इतिहास 20वीं सदी के आरंभिक वर्षों में शुरू होता है। तब भारत ब्रिटिश शासन के अधीन था, और देश को एक ऐसे प्रतीक की आवश्यकता थी जो आज़ादी के आंदोलन की भावना को अभिव्यक्त कर सके। यही सोच कर 1921 में आंध्र प्रदेश के स्वतंत्रता सेनानी और गांधीवादी विचारक पिंगली वेंकैय्या ने एक झंडे का प्रारूप तैयार किया।
भारत के राष्ट्रीय ध्वज के संघर्ष की कहानी
वेंकैय्या ने करीब 30 विभिन्न डिजाइन तैयार किए थे और वे महात्मा गांधी से मिले, जिन्होंने झंडे में चरखा जोड़ने का सुझाव दिया, ताकि यह भारतीय स्वावलंबन और खादी आंदोलन का प्रतीक बन सके।
स्वतंत्रता के अंतिम वर्षों में जब यह स्पष्ट हो गया कि भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र बनने वाला है, तब भारतीय संविधान सभा ने 22 जुलाई 1947 को एक ध्वज समिति (Flag Committee) का गठन किया। इस समिति को यह तय करना था कि आज़ाद भारत का आधिकारिक राष्ट्रीय ध्वज क्या होगा।
इस समिति ने गांधी जी द्वारा समर्थित झंडे के ढांचे को ही आगे बढ़ाया, लेकिन उसमें कुछ बदलाव किए गए। सबसे बड़ा बदलाव था- झंडे के बीच में चरखे को हटाकर अशोक चक्र को शामिल करना।
चरखा गांधी जी के लिए आत्मनिर्भरता और स्वदेशी आंदोलन का प्रतीक था, लेकिन नई सरकार को एक ऐसा प्रतीक चाहिए था जो धार्मिक और राजनीतिक रूप से तटस्थ हो। इसी सोच के तहत चरखे की जगह सारनाथ स्थित अशोक स्तंभ से लिया गया धर्म चक्र यानी अशोक चक्र जोड़ा गया।
इस बदलाव का उद्देश्य था एक ऐसा प्रतीक देना जो देश की न्यायप्रियता, धर्मनिरपेक्षता और गतिशीलता का प्रतिनिधित्व कर सके।
22 जुलाई 1947 को संविधान सभा ने तिरंगे को भारत के राष्ट्रीय ध्वज के रूप में आधिकारिक रूप से स्वीकार कर लिया। यह वही ध्वज था जिसे हम आज पहचानते हैं-
ऊपरी पट्टी- केसरी रंग: यह साहस और बलिदान का प्रतीक है।
बीच की पट्टी- सफेद रंग: यह सत्य, शांति और ईमानदारी को दर्शाता है।
निचली पट्टी- हरा रंग: यह देश की हरियाली, विकास और उन्नति का प्रतीक है।
बीच में नीले रंग का अशोक चक्र (24 तीलियों के साथ): यह चक्र धर्म, न्याय, गति और समय की निरंतरता को दर्शाता है।
आज जब हम तिरंगे की बात करते हैं, तो पिंगली वेंकैय्या का नाम अक्सर पीछे छूट जाता है। उन्होंने न सिर्फ झंडे का मूल प्रारूप तैयार किया, बल्कि उसके वैज्ञानिक, धार्मिक और सांस्कृतिक पहलुओं पर भी गहरा अध्ययन किया।
पिंगली वेंकैय्या (फोटो सोर्स-इंटरनेट)
वेंकैय्या ने 1916 में 'A National Flag for India' नामक पुस्तक प्रकाशित की थी, जिसमें उन्होंने झंडे के डिजाइन और महत्व पर विस्तार से लिखा था। उनकी कड़ी मेहनत के बिना शायद आज का तिरंगा वह रूप न ले पाता जो आज हमें गौरव से भर देता है।
तिरंगे के तीन रंग और चक्र कोई साधारण रंग या डिजाइन नहीं हैं। ये भारतीय दर्शन और मूल्यों के प्रतीक हैं।
केसरिया: वीरता, त्याग, राष्ट्र के लिए जीवन समर्पित करने की भावना।
सफेद: सच्चाई, पारदर्शिता और सभी धर्मों के प्रति समान दृष्टिकोण।
हरा: पर्यावरणीय संतुलन, कृषि प्रधानता और समृद्धि।
अशोक चक्र: समय की गति, कर्म का महत्व और जीवन की निरंतरता।
भारत का तिरंगा केवल कपड़े का टुकड़ा नहीं, यह एक जीवंत प्रतीक है- संविधान, स्वाधीनता संग्राम, विविधता और लोकतंत्र का। यह हमें हमारी जड़ों की याद दिलाता है और भविष्य की दिशा भी दिखाता है।
पिंगली वेंकैय्या जैसे समर्पित लोगों के योगदान, ध्वज समिति की दूरदर्शिता और गांधी-नेहरू की नैतिक दृष्टि के बिना यह झंडा कभी संभव नहीं होता। हर बार जब यह झंडा लहराता है, वह न केवल हवा में फहरता है, बल्कि करोड़ों भारतीयों के दिलों में भी फहरता है।
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