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लोगों की बढ़ती सोशल मीडिया लत अब मानसिक बीमारी का रूप ले रही है। विशेषज्ञों के मुताबिक, ‘पॉपकॉर्न ब्रेन सिंड्रोम’ में दिमाग लगातार उत्तेजनाओं के कारण फोकस खो देता है। इससे नींद, रिश्ते और मानसिक संतुलन पर गंभीर असर पड़ रहा है।
सोशल मीडिया की लत बना रही दिमाग को अस्थिर
New Delhi: आज के समय में सोशल मीडिया लोगों की दिनचर्या का अहम हिस्सा बन चुका है। सुबह उठने से लेकर रात को सोने तक लोग रील्स, इंस्टाग्राम, फेसबुक और यूट्यूब पर घंटों बिताते हैं। यहां तक कि कई लोग बाथरूम में भी फोन लेकर जाते हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि इस डिजिटल लत ने न केवल लोगों की उत्पादकता पर असर डाला है, बल्कि यह दिमाग के न्यूरोलॉजिकल पैटर्न को भी बदल रही है। इसी वजह से आजकल एक नया मानसिक विकार तेजी से सामने आ रहा है- “पॉपकॉर्न ब्रेन सिंड्रोम”।
‘पॉपकॉर्न ब्रेन’ शब्द की उत्पत्ति इस विचार से हुई है कि जैसे पॉपकॉर्न के दाने गर्मी में लगातार फूटते रहते हैं, वैसे ही आज का दिमाग लगातार तेज़-तेज़ उत्तेजनाओं (rapid stimulations) के बीच उछलता रहता है। मनोवैज्ञानिक जया सुकुल बताती हैं कि जब हम सोशल मीडिया पर एक वीडियो से दूसरे वीडियो, एक ऐप से दूसरे ऐप पर तेजी से जाते हैं, तो दिमाग लगातार सूचना बदलने की गति का आदी हो जाता है। यह स्थिति धीरे-धीरे दिमाग की एकाग्रता (focus) को खत्म कर देती है। इस सिंड्रोम से पीड़ित व्यक्ति किसी एक चीज़ पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाता, उसे लगातार नई उत्तेजना (जैसे नोटिफिकेशन, वीडियो, चैट) की जरूरत महसूस होती है। जब कुछ समय तक फोन न हो, तो बेचैनी, झुंझलाहट और ऊब जैसी भावनाएं हावी हो जाती हैं।
सोशल मीडिया की लत बना रही दिमाग को अस्थिर
पॉपकॉर्न ब्रेन सिंड्रोम में दिमाग की न्यूरोनल गतिविधियां (neural activities) प्रभावित हो जाती हैं। फोकस की क्षमता घट जाती है, निर्णय लेने की शक्ति कमजोर पड़ती है और व्यक्ति में डोपामाइन क्रेविंग (dopamine craving) बढ़ जाती है, यानी हर वक्त कुछ नया देखने या करने की इच्छा। साइकोलॉजिस्ट्स का कहना है कि स्मार्टफोन की स्क्रीन से निकलने वाली नीली रोशनी (blue light) दिमाग में मेलाटोनिन हार्मोन के स्राव को भी रोकती है, जिससे नींद की गुणवत्ता खराब होती है। यही वजह है कि कई लोग देर रात तक फोन चलाने के बाद भी नींद पूरी नहीं कर पाते और दिनभर थकान महसूस करते हैं।
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तकनीकी विशेषज्ञों के मुताबिक, पहले इंसान का दिमाग एक समय में एक काम पर ध्यान देने के लिए डिज़ाइन किया गया था। लेकिन आज मल्टीटास्किंग और तेज़ डिजिटल कंटेंट ने इस नैसर्गिक प्रक्रिया को बाधित कर दिया है। लोग अब कुछ सेकंड से ज्यादा बिना नोटिफिकेशन के शांत नहीं रह पाते। यही कारण है कि पढ़ाई, ऑफिस के काम या बातचीत के दौरान भी ध्यान भटकना आम हो गया है। यह सिंड्रोम धीरे-धीरे मूड स्विंग, सामाजिक दूरी और भावनात्मक असंतुलन की स्थिति पैदा कर देता है।
विशेषज्ञ बताते हैं कि यह समस्या केवल युवाओं तक सीमित नहीं है। 30 से 40 साल की उम्र के पेशेवर लोग, जो रोज़ाना 8-10 घंटे लैपटॉप या मोबाइल स्क्रीन के सामने बिताते हैं, वे भी तेजी से इस सिंड्रोम की चपेट में आ रहे हैं। इस आयु वर्ग में यह स्थिति थकान, सिरदर्द, चिड़चिड़ापन और अनिद्रा का कारण बन रही है। मनोचिकित्सक डॉ. अनुराग सिंह के अनुसार पॉपकॉर्न ब्रेन इंटरनेट एडिक्शन नहीं है, बल्कि यह हमारी जीवनशैली की गुणवत्ता (quality of life) को खत्म कर रहा है। यह रिश्तों में दूरी, मानसिक तनाव और आत्ममंथन की कमी पैदा कर रहा है।
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हर बार जब हम सोशल मीडिया पर कोई नया नोटिफिकेशन देखते हैं या कोई रील पसंद आती है, तो दिमाग में डोपामाइन नामक रसायन का स्राव होता है। यह वही रसायन है जो हमें खुशी और इनाम (reward) का एहसास कराता है। धीरे-धीरे दिमाग इस डोपामाइन हिट का आदी हो जाता है, और व्यक्ति को लगातार सोशल मीडिया पर लौटने की आदत या मजबूरी महसूस होती है। जब यह न मिले, तो मूड डाउन होना, बेचैनी या असहजता महसूस करना सामान्य लक्षण बन जाते हैं।
पॉपकॉर्न ब्रेन सिंड्रोम के लक्षण केवल मानसिक नहीं, बल्कि शारीरिक रूप से भी दिखाई देते हैं। इनमें शामिल हैं।
• नींद की कमी (Sleep Deprivation)
• एंग्जायटी और स्ट्रेस (Anxiety & Stress)
• थकान और ऊर्जा की कमी
• सिरदर्द और आंखों में जलन
• फोकस न कर पाना
• उदासी और इमोशनल डिसकनेक्शन
1. डिजिटल डिटॉक्स- हर दिन कुछ घंटे बिना फोन के रहें।
2. स्क्रीन टाइम लिमिट- सोशल मीडिया ऐप्स के लिए समय सीमा तय करें।
3. रियल इंटरैक्शन बढ़ाएं- परिवार और दोस्तों के साथ आमने-सामने बातचीत करें।
4. माइंडफुलनेस और मेडिटेशन- दिमाग को रिलैक्स करें, सांसों पर ध्यान दें।
5. स्लीप रूटीन ठीक करें- सोने से कम से कम एक घंटा पहले स्क्रीन बंद करें
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