अरावली पर्वतमाला अवैध खनन से लगातार नष्ट हो रही है। सरकारी नीतियों, पर्यावरण कार्यकर्ताओं की याचिकाओं और कोर्ट के सख्त आदेशों के बावजूद खनन थमा नहीं। सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले ने पुराने मुद्दे को फिर से उजागर कर दिया है, जो वर्षों से पर्यावरण पर गहरा संकट बन चुका है। इस एक्सक्लूसिव रिपोर्ट में जानिए पूरी कहानी

अरावली मामले में 1990 से 2025 तक अब तक क्या-क्या हुआ?
Aravalli: दुनिया की सबसे प्राचीन पर्वतमालाओं में शुमार अरावली आज किसी भूकंप, ज्वालामुखी या प्राकृतिक आपदा से नहीं, बल्कि सरकारी फाइलों, परिभाषाओं और नीतिगत चालाकियों के बीच दम तोड़ रही है। करीब 100 करोड़ साल पुरानी यह पर्वतमाला धीरे-धीरे ऐसे गायब की जा रही है कि न मशीनों का शोर सुनाई देता है, न ब्लास्ट की गूंज फिर भी पहाड़ नहीं बचे। यह कहानी उसी “खामोश विनाश” की है, जो काग़ज़ों पर हुआ और ज़मीन पर महसूस किया जा रहा है।
अरावली सिर्फ पत्थरों की कतार नहीं, बल्कि उत्तर भारत का सुरक्षा कवच है। यही पर्वतमाला राजस्थान के रेगिस्तान को आगे बढ़ने से रोकती है, भूजल को रिचार्ज करती है और दिल्ली-एनसीआर को धूलभरी हवाओं से बचाती है। विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर अरावली कमजोर पड़ी, तो पानी, हवा और तापमान तीनों का संतुलन बिगड़ जाएगा। लेकिन बीते तीन दशकों में अरावली का बड़ा हिस्सा या तो काट दिया गया या फिर “कानूनी तौर पर अरावली माना ही नहीं गया।”
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सबसे बड़ा सवाल यही है। कई इलाकों में न खनन मशीनें दिखीं, न विस्फोट हुए, फिर भी पहाड़ खत्म हो गए। जवाब जमीन पर नहीं, राजस्व रिकॉर्ड और सरकारी परिभाषाओं में छिपा है। जहां पहाड़ थे, वहां काग़ज़ों में उन्हें बंजर भूमि, गैर-वन क्षेत्र, टीला या उतार-चढ़ाव वाली जमीन लिख दिया गया। जैसे ही किसी पहाड़ी को अरावली या वन क्षेत्र की परिभाषा से बाहर किया गया, उस पर वन संरक्षण कानून लागू ही नहीं हुआ। यहीं से अरावली का अदृश्य विनाश शुरू हुआ।
सुप्रीम कोर्ट समय-समय पर अरावली को पर्यावरणीय रूप से संवेदनशील घोषित करता रहा है और बिना मंजूरी खनन पर रोक के आदेश देता रहा है। लेकिन अदालत का आदेश तभी असरदार होता है, जब यह तय हो कि कौन-सा इलाका अरावली है। यही वह बिंदु है जहां पूरी व्यवस्था लड़खड़ा जाती है। कोर्ट आदेश देता है, सीमांकन तहसील करती है, रिकॉर्ड राजस्व विभाग बनाता है और निगरानी जिला प्रशासन करता है। अगर काग़ज़ों में पहाड़ है ही नहीं, तो आदेश किस पर लागू होगा?
पर्यावरण विशेषज्ञ चेताते रहे हैं कि अरावली सिर्फ ऊंचे पर्वतों का नाम नहीं। उसकी छोटी-छोटी पहाड़ियां, चट्टानें और ढलानें ही पूरे इकोसिस्टम की रीढ़ हैं। लेकिन कानूनी परिभाषाओं में अक्सर छोटी पहाड़ियां अरावली नहीं मानी गईं। नतीजा यह हुआ कि हजारों हेक्टेयर क्षेत्र कानून की सुरक्षा से बाहर चला गया। न मशीन लगी, न ब्लास्ट हुआ लेकिन कानूनी कवच हटते ही पहाड़ों का भविष्य तय हो गया।
सरकारों ने बजरी खनन पर सख्ती दिखाई। लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं होती। बजरी बंद होने के बाद पत्थर, ग्रेवल और अन्य छोटे निर्माण खनिजों के नाम पर गतिविधियां चलती रहीं। काग़ज़ों में यह “अरावली खनन” नहीं था, बल्कि “अन्य खनिज गतिविधि” थी। यही तकनीकी फर्क अरावली को भीतर से खोखला करता गया।
हर खनन अवैध नहीं दिखता। कई बार वह अधूरी मंजूरी, पुराने पट्टों और सीमित क्षेत्र के नाम पर होता है। कानून की भाषा इतनी जटिल है कि एक राज्य में जो अवैध है, दूसरे में वही “नियमों के भीतर” माना जाता है। इसी ग्रे एरिया में अरावली सबसे ज्यादा टूटी। क्या प्रशासन जानबूझकर आंख मूंदता है या खुद कानूनी जाल में फंसा है? सच्चाई शायद बीच में है। स्थानीय अधिकारी कहते हैं रिकॉर्ड उनके हाथ में नहीं। राज्य कहता है नीति केंद्र से जुड़ी है। केंद्र कहता है क्रियान्वयन राज्यों का काम है। इस जिम्मेदारी के पिंग-पोंग में अरावली हार जाती है।
अवैध खनन में ट्रक पकड़े जाते हैं, मशीनें जब्त होती हैं, लोग गिरफ्तार होते हैं। लेकिन कार्रवाई अक्सर ड्राइवर, मजदूर या छोटे ठेकेदार तक सीमित रहती है। जो तय करता है कि कौन-सी जमीन अरावली है और कौन-सी नहीं। वह प्रक्रिया शायद ही कभी कटघरे में आती है।
1990 के दशक में अवैध खनन की शिकायतें बढ़ीं। 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार हस्तक्षेप किया। 2002 में सीईसी की रिपोर्ट आई और खनन पर सख्ती हुई। 2005 और 2009 में बड़े प्रतिबंध लगे। लेकिन परिभाषाओं के खेल ने हर रोक को कमजोर कर दिया। 2025 में नई परिभाषाओं और मैपिंग बदलावों ने एक बार फिर चिंता बढ़ा दी है। विशेषज्ञों का कहना है कि इससे अरावली का बड़ा हिस्सा खनन के लिए खुल सकता है।
पर्यावरण विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं। अरावली कमजोर होगी तो रेगिस्तान बढ़ेगा। भूजल और नीचे जाएगा। दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण और धूल बढ़ेगी। तापमान असामान्य रूप से ऊपर जाएगा। और तब यह सवाल कोई नहीं पूछेगा कि मशीन क्यों नहीं दिखी क्योंकि तब जवाब देने वाला कोई पहाड़ बचेगा ही नहीं।
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यह कहानी विस्फोट की नहीं, फाइल मूवमेंट की है। अरावली को तोड़ा नहीं गया उसे परिभाषा से बाहर कर दिया गया। जब तक पहाड़ बचाने की लड़ाई जमीन से पहले काग़ज़ों में नहीं लड़ी जाएगी, तब तक मशीनें दिखें या न दिखें, अरावली यूं ही खामोशी से गायब होती रहेगी।
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