सुप्रीम कोर्ट ने दहेज मामलों पर गंभीर चिंता जताते हुए कानूनों की प्रभावशीलता पर सवाल उठाए हैं। 20 साल की युवती की दहेज हत्या के मामले में अदालत ने दोषसिद्धि बहाल की। कोर्ट ने समाज और शिक्षा व्यवस्था में बदलाव की जरूरत पर जोर दिया।

सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला
New Delhi: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को देश में दहेज से जुड़े मामलों पर गहरी चिंता जाहिर की। शीर्ष अदालत ने कहा कि दहेज के खिलाफ बने मौजूदा कानून एक तरफ जहां अप्रभावी साबित हो रहे हैं, वहीं दूसरी ओर इनके दुरुपयोग के मामले भी सामने आ रहे हैं। इसके बावजूद दहेज जैसी सामाजिक बुराई आज भी समाज में व्यापक रूप से प्रचलित है। कोर्ट ने कहा कि यह समस्या केवल कानूनी नहीं, बल्कि सामाजिक मानसिकता से जुड़ी हुई है, जिसे खत्म करने के लिए सामूहिक प्रयास जरूरी हैं।
जिस मामले में सुप्रीम कोर्ट सुनवाई कर रहा था, उसमें महज 20 साल की एक युवती को दहेज की मांग पूरी न होने पर उसके पति और सास ने कैरोसीन का तेल डालकर जिंदा जला दिया। इस घटना को लेकर अदालत ने बेहद सख्त शब्दों में टिप्पणी करते हुए कहा कि यह सिर्फ एक हत्या नहीं, बल्कि पूरे समाज पर कलंक है। कोर्ट ने सवाल किया कि क्या एक युवती की कीमत सिर्फ एक कलर टीवी, मोटरसाइकिल और 15 हजार रुपये नकद तक सीमित थी, जो उसके माता-पिता शादी में नहीं दे सके।
देवता को विश्राम नहीं करने दिया जा रहा… आखिर क्यों सुप्रीम कोर्ट ने कही ये बात; पढ़ें पूरी खबर
जस्टिस संजय करोल और जस्टिस एन. कोटिश्वर सिंह की पीठ ने कहा कि दहेज जैसी कुप्रथा के खिलाफ लड़ाई केवल अदालतों के भरोसे नहीं छोड़ी जा सकती। इसके लिए समाज, सरकार, शिक्षा व्यवस्था और न्यायपालिका सभी को मिलकर प्रयास करने होंगे। पीठ ने कहा कि यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज भी कम उम्र की लड़कियों को इस अमानवीय प्रथा की वजह से अपनी जान गंवानी पड़ रही है।
सुप्रीम कोर्ट ने दहेज से जुड़े मामलों के शीघ्र निपटारे के लिए देशभर के हाईकोर्ट्स को कई निर्देश जारी किए। अदालत ने कहा कि हाईकोर्ट्स को यह जानकारी जुटानी चाहिए कि भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 304-बी (दहेज हत्या) और 498-ए (विवाहित महिला से क्रूरता) के तहत कितने मामले लंबित हैं।
यह मामला करीब 24 साल पुराना है। सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले के खिलाफ उत्तर प्रदेश सरकार की अपील पर सुनवाई करते हुए यह अहम आदेश दिया। हाईकोर्ट ने वर्ष 2003 में एक महिला समेत दो आरोपियों को बरी कर दिया था। हाईकोर्ट का तर्क था कि मृतका के मामा घटना के प्रत्यक्षदर्शी नहीं थे, इसलिए उनकी गवाही स्वीकार्य नहीं है।
मामले के अनुसार, नसरीन की शादी अजमल बेग से हुई थी। शादी के कुछ समय बाद ही पति और ससुराल वालों ने दहेज की मांग शुरू कर दी। उनसे कलर टीवी, मोटरसाइकिल और 15 हजार रुपये नकद मांगे गए। दहेज न मिलने पर नसरीन को लगातार प्रताड़ित किया गया। आखिरकार वर्ष 2001 में उसके पति और ससुराल वालों ने उस पर कैरोसीन डालकर आग लगा दी। जब तक उसके मामा मौके पर पहुंचे, तब तक नसरीन की मौत हो चुकी थी।
इस मामले में ट्रायल कोर्ट ने अजमल और उसकी मां को आईपीसी की धारा 304-बी और 498-ए के तहत दोषी ठहराते हुए आजीवन कारावास और जुर्माने की सजा सुनाई थी। हालांकि, इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बाद में इस फैसले को पलटते हुए दोनों आरोपियों को बरी कर दिया, जिसके बाद यूपी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।
सुप्रीम कोर्ट ने यूपी सरकार की अपील स्वीकार करते हुए अजमल और उसकी मां की दोषसिद्धि बहाल कर दी। कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट का फैसला सही नहीं था और साक्ष्यों की अनदेखी की गई थी। हालांकि, कोर्ट ने आरोपी की 94 वर्षीय मां को उम्र को देखते हुए कारावास की सजा से राहत दी।