Jaipur: राजस्थान की राजधानी जयपुर में स्थित नीरजा मोदी स्कूल की एक छोटी सी छात्रा द्वारा सुसाइड करने की घटना सुर्खियों में बनी हुई है। झकझोर देने वाली इस घटना ने कई सवाल खड़े कर दिये। समाज से लेकर संस्थान, हमारी सोच और परिवेश को कटघरे में खड़ा कर दिया है। सबसे बड़ा सवाल ये है कि चौथी कक्षा में पढ़ने वाली छात्रा भले कैसे और क्यों सुसाइड करेगी।
जानकारी के अनुसार यह घटना शनिवार की है। 9 साल की छात्रा अमायरा ने दोपहर लगभग डेढ़ बजे स्कूल की छठी मंजिल से कूदकर अपनी जान दे दी। हालांकि छात्रा ने यह कदम क्यों उठाया, यह स्पष्ट नहीं हो सका है। पुलिस की टीम मामले की जांच कर रही है।
बताया जाता है कि झाड़ियों में गिरने पर छात्रा का सिर दीवार से टकराया। चीख सुनकर स्टाफ पहुंचा। छात्रा को नजदीकी अस्पताल ले जाया गया, जहां उसे मृत घोषित कर दिया। छात्रा के नीचे कूदने का वीडियो भी सामने आया है। जिसमें बच्ची रेलिंग से नीचे कूदते नजर आ रही है। पुलिस ने स्कूल प्रबंधन और टीचर्स के खिलाफ FIR दर्ज कराई है।
यह दर्दनाक घटना सिर्फ एक परिवार की नहीं, बल्कि पूरे समाज को चेतावनी है। आखिर एक नन्हीं बच्ची ऐसा कदम उठाने पर क्यों मजबूर हुई, यह सबसे बड़ा सवाल है? स्कूल की जिम्मेदारी, अभिभावकों की भूमिका और बच्चों पर पड़ते मानसिक दबाव जैसे सभी पहलू अब जांच और आत्ममंथन के दायरे में हैं। हम बच्चों को एक खिलखिलाता बचपन दें। हम उनकी चिंता और तनाव का कारण बनते हैं तो इससे बड़ा दुर्भाग्य कुछ नहीं हो सकता।
बता दें कि स्कूल का माहौल बच्चों के विकास में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यदि वहाँ भय, प्रतिस्पर्धा या दंड का वातावरण होगा, तो बच्चा धीरे-धीरे आत्मविश्वास खोने लगता है। ऐसे में जब भावनाओं को समझने और सहानुभूति दिखाने वाला कोई न हो, तो बच्चा खुद को अकेला महसूस करता है और कभी-कभी ऐसे भयावह कदम उठा लेता है।
माता-पिता की भूमिका भी उतनी ही अहम है। बच्चों की हर छोटी-बड़ी बात को गंभीरता से सुनना, उन्हें भरोसा दिलाना कि वे अपनी बात बिना डर के कह सकते हैं। यह आज के दौर में सबसे बड़ी ज़रूरत है। कई बार बच्चे अपनी समस्या या डर को शब्दों में नहीं कह पाते, लेकिन उनके व्यवहार में बदलाव दिखने लगता है। यही संकेत माता-पिता और शिक्षकों को समय रहते पहचानने चाहिए।
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सोशल मीडिया और स्क्रीन की दुनिया ने भी बच्चों के भावनात्मक संतुलन को प्रभावित किया है। आज बच्चे बहुत कम उम्र में ही तुलना, प्रतिस्पर्धा और असफलता के डर से गुजर रहे हैं। ऐसे में स्कूलों को केवल शिक्षा देने की जगह “भावनात्मक शिक्षा” पर भी उतना ही ध्यान देना चाहिए।
अमायरा की मौत एक दर्दनाक चेतावनी है — यह हमें मजबूर करती है सोचने पर कि क्या हम अपने बच्चों को “पढ़ा” तो रहे हैं, लेकिन “समझ” नहीं पा रहे? अगर अब भी हमने बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता नहीं दी, तो ऐसे हादसे केवल आंकड़ों में नहीं, हमारी सामूहिक संवेदनहीनता के प्रमाण बनते जाएंगे।
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इस हादसे को एक घटना भर न मानकर हमें आत्ममंथन करना होगा। घरों से लेकर स्कूलों तक, रिश्तों से लेकर नीतियों तक। क्योंकि सवाल अब सिर्फ “क्यों हुआ?” का नहीं, बल्कि “अब दोबारा कैसे न हो?” का है। जरूरत इस बात की भी है कि हम सिर्फ कारण तलाशने तक सीमित न रहें, बल्कि ऐसे माहौल का निर्माण करें जहां कोई “अमायरा” दोबारा ऐसी राह न चुने।

