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अब नहीं सुनाई पड़ती कजरी की मनमोहक आवाज, सावन के झूले भी होते जा रहे विलुप्त, जनसंख्या विस्फोट ने छीने बाग- बागीचे

सावन का पूरा माह बीतने के कगार पर आ गया है। अब झूले और कजरी के गीतों की झलक भी बीते जमाने की बात सी होती जा रही है। पढ़ें डाइनामाइट न्यूज की पूरी रिपोर्ट
Post Published By: डीएन ब्यूरो
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अब नहीं सुनाई पड़ती कजरी की मनमोहक आवाज, सावन के झूले भी होते जा रहे विलुप्त, जनसंख्या विस्फोट ने छीने बाग- बागीचे

महराजगंज: जनसंख्या विस्फोट ने छीने बाग- बागीचे, मुर्गियों के दड़बे में तब्दील हुए घर। अपनी रिमझिम फुहारों, मदमस्त हवाओं और चतुर्दिक हरीतिमा के लिए जाना जाने वाला सावन का महीना आता तो अभी भी है लेकिन आधुनिकता की चकाचौंध और आदमी से आदमी के बीच लगातार बढ़ती जा रही दूरियों के इस दौर में अब यह महीना भी पहले जैसा नहीं रहा।
आया सावन झूम के
तुझे गीतों में ढालूँगा सावन को आने दो" तथा " सावन का महीना पवन करे शोर" जैसे कर्णप्रिय गीत आज भी सुनने को मिलते अवश्य हैं लेकिन " कहँवा से आवे लें कृष्ण – कन्हैया,  कहँवा से आवें राधा गोरी परे ले रिमझिम बुनिया" तथा " चाहे पिया रइहें चाहे जायं हो सवनवाँ में ना जइबो ननदी जैसे कजरी गीत अब परिदृश्य से पूरी तरह गायब हो चुके हैं। दूसरी ओर कुछ साल पहले तक हमारे बाग-बागीचे व घरों के आँगन विभिन्न आकार-प्रकार के झूलों से सजे हुए नजर आते थे, लेकिन जनसंख्या विस्फोट ने आज हमें हमारे बाग- बागीचों से दूर कर हमारे घरों को मुर्गी के दड़बों में तब्दील कर दिया।

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