सुप्रीम कोर्ट ने 20 नवंबर 2025 को एक आदेश सुनाया, जिसमें कोर्ट ने अरावली को परिभाषित करने के लिए ‘100 मीटर ऊंचाई’ और ‘500 मीटर की दूरी वाले दो या अधिक पहाड़’ जैसे मानदंड निर्धारित किए हैं।

अरावली पर्वतमाला पर राजनीतिक और सामाजिक प्रतिक्रिया
New Delhi: गुजरात के पालनपुर से शुरू होकर दिल्ली तक लगभग 600-700 किलोमीटर तक फैली और गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली राज्यों से होकर गुजरने वाली प्राकृतिक ढाल, ‘अरावली पर्वतमाला’ क्या खतरे में है? क्या दिल्ली-एनसीआर वालों के लिए सांफ सांस लेनी की आखिरी उम्मीद भी टूट जाएगी?
इस समय अरावली हिल्स को लेकर एक बड़ा राजनीतिक, पर्यावरणीय और सामाजिक विवाद छिड़ा हुआ है, जो देश भर और विशेष रूप से दिल्ली-NCR के लिये चिंता का विषय बन गया है। इस विवाद का मूल कारण है हाल ही में सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार द्वारा अरावली की नई “परिभाषा” कोलागूकरना।
सुप्रीम कोर्ट ने 20 नवंबर 2025 को एक आदेश सुनाया, जिसमें कोर्ट ने अरावली को परिभाषित करने के लिए '100 मीटर ऊंचाई' और '500 मीटर की दूरी वाले दो या अधिक पहाड़' जैसे मानदंड निर्धारित किए हैं। इसका मतलब यह हुआ कि अब सिर्फ 100 मीटर से ऊपर के भू-आकृतियों को ही अरावली पर्वत कहा जाएगा। इस फैसले से न केवल इस रिच और कल्चरल पहाड़ीनुमा संरचना के कई छोटे-छोटे हिस्से इससे अलग हो जाएंगे, बल्कि इस पर्वतमाला के संरक्षण को भी खतरा हो सकता है।
अब, सबसे बड़ा सवाल यह है कि अरावली पहाड़ों का संरक्षण कैसे किया जाए और उन्हें विकास, खनन या अन्य निर्माण गतिविधियों से कैसे बचाया जाए। सोशल मीडिया पर इस फैसले को लेकर सवाल खड़े किए जा रहे हैं और ऐसी आशंका जताई जा रही है कि अरावली के 100 मीटर की ऊंचाई से नीचे के हिस्से को खनन के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।
पर्यावरण विशेषज्ञों और कार्यकर्ताओं के अनुसार, यह कदम अरावली की सुरक्षा को कमजोर करने वाला है। वे चेतावनी दे रहे हैं कि 100 मीटर से नीचे की छोटी-छोटी पहाड़ियों की सुरक्षा समाप्त हो जाएगी, जिससे वहां खनन, अतिक्रमण, अवैध निर्माण और अन्य विकास कार्यों की राह खुल सकती है।
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अरावली की छोटी पहाड़ियां वायु प्रदूषण को रोकने, पानी का भूजल में संचय, धूल भरे तूफानों को रोकने और स्थानीय जलवायु को संतुलित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। यदि इन्हें कानूनी सुरक्षा से बाहर कर दिया गया, तो इन संवेदनशील प्रणालियों पर बड़ा दबाव बढ़ेगा, जिससे दिल्ली-NCR जैसे क्षेत्रों में धूल, प्रदूषण और जल संकट जैसी समस्याएं और गहरा सकती हैं।
केंद्र सरकार और पर्यावरण मंत्री ने इस पर अपना पक्ष रखते हुए कहा कि 90 प्रतिशत से अधिक अरावली क्षेत्र अब भी संरक्षित रहेगा और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (NCR) में खनन पूरी तरह से प्रतिबंधित है। उन्होंने यह भी कहा है कि गलत सूचनाएं फैल रही हैं और यह निर्णय पारदर्शी है। उनके अनुसार, केवल 0.19 प्रतिशत क्षेत्र में सीमित खनन परमिट हो सकता है।
इस फैसले पर राजनीतिक और सामाजिक प्रतिक्रिया भी तेज है। राजस्थान जैसे राज्यों में लोग और विभिन्न पार्टी नेता सड़कों पर उतर आए हैं और “सेव अरावली” अभियान चला रहे हैं। कुछ नेताओं का आरोप है कि यह कदम बड़े उद्योगों और खनन हितों को लाभ पहुंचाने के लिए उठाया गया है, जबकि विरोधी पक्ष इसे पर्यावरण विनाश की एक बड़ी योजना बता रहे हैं।
इस विषय में विवाद का केंद्र यह है कि अरावली की नई कानूनी परिभाषा सुनियोजित संरक्षण को कमजोर कर सकती है, जिससे विकास-हितों के लिए रास्ता खुल सकता है और इसी वजह से यह दिल्ली-NCR समेत पूरे उत्तर भारत के पर्यावरण और लोगों के स्वास्थ्य के लिये ‘खतरे की घंटी’ की तरह माना जा रहा है।