Negligence In Treatment: इलाज में लापरवाही पर कानूनी प्रावधान, डॉक्टर और पुलिस की भूमिका पर पढ़िये से खास रिपोर्ट
डीएमसी ने अस्पताल और डॉक्टरों को निर्दोष करार दिया लेकिन उसकी इस राय को सपना ने अदालत में चुनौती दी और अंतत: एक अक्टूबर 2019 को प्राथमिकी दर्ज की गई। लेकिन क्या अब तक हो सका इंसाफ? पढ़िये डाइनामाइट न्यूज की पूरी रिपोर्ट
नई दिल्ली: देवर्ष जैन अब पांच साल के हैं और अगस्त 2017 में जन्म के दौरान उनके मस्तिष्क में रक्त स्राव हुआ था जिसकी वजह से वह लकवा गस्त हैं और इसका पता सात महीने बाद ही चल सका।
देवर्ष जैन के माता-पिता अपने बेटे की इस स्थिति के लिए शालीमार बाग स्थित फोर्टिस अस्पताल के डॉक्टरों को जिम्मेदार मानते हैं। सपना ने इसी अस्पताल में देवर्ष को जन्म दिया था। माता-पिता का दावा है कि फोर्टिस के डॉक्टरों ने जानबूझकर दिमाग में स्राव की बात छिपाई जिसकी वजह से वे समय पर इलाज नहीं करा सके। हालांकि, अस्पताल ने आरोपों से इनकार किया है।
सपना ने 2018 में पुलिस से शिकायत की और पुलिस ने विशेषज्ञ राय के लिए मामले को दिल्ली चिकित्सा परिषद (डीएमसी) को भेज दिया। डीएमसी ने अस्पताल और डॉक्टरों को निर्दोष करार दिया लेकिन उसकी इस राय को सपना ने अदालत में चुनौती दी और अंतत: एक अक्टूबर 2019 को प्राथमिकी दर्ज की गई।
देवर्ष का मामला अकेला नहीं है जिसमें डीएमसी ने डॉक्टरों को इलाज में लापरवाही के आरोप से बरी किया। परिपाटी के तहत पुलिस चिकित्सा में लापरवाही को लेकर दर्ज प्रत्येक आपराधिक शिकायत में डीएमसी की राय लेती है।
डीएमसी से विशेषज्ञ राय लेने की परिपाटी के बारे में ऐसे मामलों की जांच से जुड़े एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने बताया कि सरकारी डॉक्टर ऐसे मामलों में पुलिस को राय देने के लिए बाध्य नहीं है। उन्होंने पहचान गुप्त रखते हुए कहा, ‘‘ ऐसे में बेहतर है कि नियामक को लिखा जाए जो विशेषज्ञों की पहचान कर राय दे।’’
अधिकारी ने बताया कि दिल्ली के सभी डॉक्टर डीएमसी में पंजीकृत हैं।
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उल्लेखनीय है कि ऐसे मामले आए हैं जिनमें उच्च न्यायालय ने चिकित्सा परिषद की ‘‘पक्षपाती’’ राय पर अपत्ति को लेकर संज्ञान लिया है और मामलों को सरकारी अस्पतालों में विशेषज्ञ राय के लिए भेजा है।
उदाहरण के लिए हिमांशु सिंघल बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र राज्य के मामले जिसमें बच्चे की पेचिश के इलाज के दौरान मौत हुई थी दिल्ली उच्च न्यायालय ने मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज को मेडिकल बोर्ड गठित करने का निर्देश और रिपोर्ट उसे जमा करने को कहा। ऐसे ही रश्मि दीक्षित और मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई, जिसे अब राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग के तौर पर जाना जाता है) के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने डीएमसी और एमसीआई द्वारा डॉक्टर को बरी करने पर नाराजगी जताई थी क्योंकि उक्त डॉक्टर सर्जरी करने के लिए अधिकृत ही नहीं था।
देवर्ष के पिता और पेशे से वकील सचिन जैन ने अपने बेटे की ओर से दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर डीएमसी की विशेषज्ञ राय देने के अधिकार को चुनौती दी है। याचिका में कहा गया है कि डीएमसी डॉक्टरों का निर्वाचित निकाय है जो आम तौर पर डॉक्टरों का बचाव करती है और परिषद को आपराधिक मामलों में पुलिस को विशेषज्ञ राय देने का अधिकार नहीं है।
उन्होंने 2005 में जैकब मैथ्यू मामले में उच्चतम न्यायालय के फैसले का हवाला दिया जिसमें इलाज में लापरवाही के आपराधिक मामलों की जांच के लिए कुछ दिशानिर्देश तय किए गए हैं।
फैसले में कहा गया, ‘‘ जांच अधिकारी को इलाज में लापरवाही करने या गलती करने के मामले में डॉक्टर के खिलाफ कार्रवाई शुरू करने से पहले स्वतंत्र और उचित चिकित्सा राय लेनी चाहिए। यह राय सरकारी सेवा में कार्यरत डॉक्टर से लेनी चाहिए जिससे उम्मीद की जाती है कि वह निष्पक्ष राय देगा।’’ अदालत ने इन दिशानिर्देशों को तय करते हुए कहा कि केंद्र और राज्य सरकार को एमसीआई से परामर्श लेकर कुछ दिशानिर्देश बनाने चाहिए।”
डीएमसी का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रवीण खट्टर ने तर्क दिया कि डीएससी अधिनिमय परिषद को कथित चिकित्सा कदाचार में विशेष राय देने का अधिकार देता है।
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अदालत में दायर हलफनामा में डीएमसी ने कहा कि जैकब मैथ्यू मामले का संदर्भ देते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय में रमेश दत्त शर्मा बनाम एमसीआई मामले में कहा कि ‘‘वह मानती है कि प्राथमिकी दर्ज की जाए या नहीं यह तय करने के लिए डीएमसी/एमसीआई की राय या विचार पर भरोसा करने को लेकर पुलिस अधिकारियों की कार्रवाई मे कोई खामी नहीं मिली।’’ यह मामला अब भी अदालत में लंबित है।
उच्चतम न्यायालय द्वारा फैसला दिए जाने के 17 साल बाद भी चिकित्सा लापरवाही के आपराधिक मामलों की जांच के लिए कोई कानूनी प्रावधान नहीं किया गया है।
एमसीआई ने 31 अक्टूबर 2017 को पहली बार प्रस्ताव पारित किया गया जिसमें सरकार से चिकित्सा के सभी इकाइयों के विशेषज्ञ डॉक्टरों वाले चिकिस्ता बोर्ड बनाने का प्रस्ताव किया गया । राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग ने सितंबर 2021 में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय को ऐसे मेडिकल बोर्ड के गठन, सदस्यों की शर्तों और कामकाज को लेकर पत्र लिखा।
कानूनी और चिकित्सा विशेषज्ञों का मानना है कि उचित कानूनी प्रावधान न केवल मरीजों के हितों की रक्षा करेंगे बल्कि डॉक्टरों के खिलाफ हिंसा की घटनाओं को भी रोकेंगे।
जैकब मैथ्यू मामले में वरिष्ठ अधिवक्ता के रूप में पेश हुए पूर्व अतिरिक्त सॉलिसीटर जनरल विवेक तन्खा ने कहा कि जबतक कानूनी दिशानिर्देश तैयार नहीं होते तबतक शीर्ष अदालत के निर्देशों का अनुपालन किया जाना चाहिए।
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की कार्रवाई समिति के अध्यक्ष डॉ.विनय अग्रवाल ने केंद्रीय कानून की जरूरत पर जोर दिया।