Rani Sati Dadi: मारवाड़ी समाज की कुल देवी राणी सती दादी के भादी अमावस्या के महोत्सव का ये है महत्व

रानी टिबड़ेवाल

30 अगस्त को मारवाड़ियों का सबसे बड़ा त्योहार भादी अमावस्या मनाया जाएगा। ये त्योहार मारवाड़ियों द्वारा बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। इस त्योहार के लिए लोग महीने भर से ही तैयारी शुरु कर देते हैं। जानें आखिर क्यों मनाया जाता है ये त्योहार और क्यों है ये इतना खास डाइनामाइट न्यूज़ पर..

राणी सती का मंदिर
राणी सती का मंदिर


नई दिल्ली: कल 30 अगस्त को मारवाड़ियों का सबसे बड़ा त्योहार भादी अमावस्या मनाया जाएगा। परम अराध्या श्री दादी जी के प्रताप उनके वैभव और उपने भक्तों पर नि:स्वार्थ कृपा बरसाने वाली ''मां नारायणी'' को कौन नहीं जानता है। भारत में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी उनके भक्त और उपासक हैं।

पौराणिक इतिहास के मुताबिक महाभारत के युद्ध में चक्रव्यूह में वीर अभीमन्यु वीर गति को प्राप्त हुए थे। उस समय उत्तरा जी को भगवान श्री कृष्णा जी ने वरदान दिया था कि तू कल्युग में ''नारायणी'' के नाम से श्री सती दादी के नाम से विख्यात होगी, और हर किसी का कल्याण करेगी और पूरी दुनिया में पूजी जाएगी। उसी वरदान के स्वरूप श्री सती दादी जी आज लगभग 715 वर्ष पूर्वा मंगलवार मंगसिर आदि नवमीं सन्न 1352 ईस्वीं 06.12.1295 के सती हुई थीं।

जन्म- श्री दादी सती का जन्म संवत 1638 वि.कार्तिक शुक्ला नवमीं दिन मंगलवार रात 12 बजे के पश्चात डोकवा गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम सेठ श्री गुरसामल था। 

बचपन- इनका नाम नारायाणी बाई रखा गया था। ये बचपन में धार्मिक और सतियो वाले खेल खेलती थी | बड़े होने पर सेठ जी ने उन्हे धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ शस्त्र शिक्षा व घुड़सवारी की शिक्षा भी दिलाई थी। बचपन से ही इनमें दैविक शक्तियां नज़र आती थी, जिससे गांव के लोग आश्चर्य चकित थे।

विवाह- नारायणी बाई का विवाह हिस्सर राज्य के सेठ श्री ज़ालीराम जी के पुत्रा तनधन दास जी के साथ मंगसिर शुक्ला नवमीं सन्न 1352 मंगलवार को बहुत ही धूम धाम से हुआ था।

तनधन जी का इतिहास- इनका जन्म हिस्सार के सेठ ज़ालीराम जी के घर पर हुआ था। इनकी माता का नाम शारदा देवी था। छोटे भाई का नाम कमलाराम और बहन का नाम स्याना था। ज़ालीराम जी हिस्सार में दीवान थे। वहां के नॉवब के पुत्र और तनधन दास जी में मित्रता थी परंतु समय और संस्कार की बात है, तनधन दास जी की घोड़ी शहज़ादे को भा गई। घोड़ी पाने की ज़िद से दोनो में दुश्मनी ठन गई। घोड़ी छीनने के प्रयत्न में शहज़ादा मारा गया। इसी हादसे से घबरा कर दीवान जी रातोंरात परिवार सहित हिस्सर से झुनझुनु की ओर चल दिए। हिस्सर सेना की ताक़त झुनझुनु सेना से टक्कर लेने की नही थी।दोनों शाहो में शत्रुता होने के कारण ये लोग झुनझुनु में बस गए। 

मुकलावा- मुकलावे के लिए ब्राह्मण के द्वारा दीवान साहब के पास निमंत्रण भेजा गया। निमंत्रण स्वीकार होने पर तनधन दास जी राणा के साथ कुछ सैनिकों सहित मुकलावे के लिए “महम” पहुंचे। मंगसिर कृष्णा नवमीं सन्न 1352 मंगलवार प्रातः शुभ बेला में नारायाणी बाई विदा हुई, लेकिन होने को कुछ और ही मंजूर था। इधर नवाब घात लगाकर बैठा था। मुकलावे की बात सुनकर सारी पहाड़ी को घेर लिया।“देवसर” की पहाड़ी के पास पहुंचते ही सैनिको ने हमला कर दिया। तनधन दास जी ने वीरता से डटकर हिस्सारी फ़ौजो का सामना किया | विधाता का लेख देखिए पीछे से एक सैनिक ने धोके से वार कर दिया, तनधन जी वीरगति को प्राप्त हुए।

नई नवेली दुल्हन ने डोली से जब यह सब देखा तो वह वीरांगना नारायाणी चंडी का रूप धारण कर सारे दुश्मनो का सफ़ाया कर दिया। झडचन का भी एक ही वार में ख़ात्मा कर दिया। लाशों से ज़मीन को पाट दिया। सारी भूमि रक्त रंजीत हो गयी, बची हुई फौज भाग खड़ी हुई। इसे देख राणा जी की तंद्रा जगी, वे आकर माँ नाराराणी से प्रार्थना करने लगे, तब माता ने शांत होकर शस्त्रों का त्याग किया। फिर राणा जी को बुला कर उनसे कहा- मैं सती होउंगी तुम जल्दी से चीता तय्यार करने के लिए लकड़ी लाओ। चीता बनने में देर हुई और सूर्या छिपने लगा तो उन्होने सत् के बल से सूर्या को ढलने से रोक दिया। अपने पति का शव लेकर चीता पर बैठ गई। चुड़े से अग्नि प्रकट हुई और सती पति लोक चली गयी। चीता धू धू जलने लगी। देवताओं ने गदन से सुमन वृष्टि की।

वरदान- तत्पश्चात चीता में से देवी रूप में सती प्रकट हुई और मधुर वाणी में राणा जी से बोली, मेरी चीता की भस्म को घोड़ी पर रख कर ले जाना, जहाँ ये घोड़ी रुक जाएगी वही मेरा स्थान होगा। मैं उसी जगह से जन-जन का कल्याण करूंगी। ऐसा सुन कर राणा बहुत रुदन करने लगा। तब माँ ने उन्हे आशीर्वाद दिया की मेरे नाम से पहले तुम्हारा नाम आएगा “रानी सती” नाम इसी कारण से प्रसीध हुआ। घोड़ी झुनझुनु गाँव में आकर रुक गयी। भस्म को भी वहीं पघराकर राणा ने घर में जाकर सारा वृतांत सुनाया। ये सब सुनकर माता पिता भाई बहिन सभी शोकाकुल हो गये। आज्ञानुसार भस्म की जगह पर एक सुंदर मंदिर का निर्माण कराया। आज वही मंदिर एक बहुत बड़ा पुण्य स्थल है, जहाँ बैठी माँ “रानी सती दादी जी” अपने बच्चों पर अपनी असीम अनुकंपा बरसा रही है। अपनी दया दृष्टि से सभी को हर्षा रही है। इसलिए हर साल मारवाड़ियों द्वारा ये त्योहार बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। इस त्योहार की तैयारियां महीने भर पहले से ही शुरु हो जाती हैं।










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