सुप्रीम कोर्ट ने कहा- न्यायेतर इकबालिया बयान की पुष्टि के लिए पुख्ता सबूत जरूरी
उच्चतम न्यायालय ने 2007 में हुई हत्या के एक मामले में एक व्यक्ति को बरी करते हुए कहा कि न्यायेतर स्वीकारोक्ति सबूत का एक कमजोर हिस्सा है, जिसकी पुष्टि के लिए पुख्ता साक्ष्य जरूरी है। पढ़िये पूरी खबर डाइनामाइट न्यूज़ पर
नयी दिल्ली: उच्चतम न्यायालय ने 2007 में हुई हत्या के एक मामले में एक व्यक्ति को बरी करते हुए कहा कि न्यायेतर स्वीकारोक्ति सबूत का एक कमजोर हिस्सा है, जिसकी पुष्टि के लिए पुख्ता साक्ष्य जरूरी है।
न्यायमूर्ति बीआर गवई और न्यायमूर्ति विक्रम नाथ की पीठ ने कहा कि यह सिद्ध किया जाना आवश्यक है कि न्यायेतर इकबालिया बयान पूरी तरह से स्वैच्छिक और सच्चा है।
पीठ ने कहा, “न्यायेतर स्वीकारोक्ति सबूत का एक कमजोर हिस्सा है, खासतौर पर तब, जब सुनवाई के दौरान सामने वाला इससे मुकर जाए। इसकी पुष्टि के लिए पुख्ता सबूत जरूरी है और यह भी स्थापित किया जाना चाहिए कि यह पूरी तरह से स्वैच्छिक और सच्चा था।”
उसने कहा, “उपरोक्त बहस के मद्देनजर, हमें न्यायेतर स्वीकारोक्ति का समर्थन करने के लिए कोई पुख्ता साक्ष्य नहीं मिला, बल्कि अभियोजन पक्ष द्वारा दिया गया साक्ष्य उससे असंगत है।”
शीर्ष अदालत हत्या के आरोपी इंद्रजीत दास की त्रिपुरा उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रही थी।
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उच्च न्यायालय ने दास की अपील को खारिज करते हुए निचली अदालत द्वारा उसे भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 302/34 (हत्या और साझा मंशा) और धारा 201 (साक्ष्य मिटाना) के तहत सुनाई गई सजा बरकरार रखी थी।
पुलिस ने कहा था कि दास और एक किशोर ने उसके सामने कबूल किया है कि दोनों मृतक कौशिक सरकार की बाइक पर बैठकर उत्तरी त्रिपुरा जिले के फटीकरॉय और कंचनबाड़ी इलाके में गए थे।
पुलिस के मुताबिक, दोनों आरोपियों ने बाइक सवार कौशिक सरकार पर एक बड़े चाकू से वार किया और उसका हेल्मेट, बटुआ तथा दो चाकू पास के जंगल में फेंक दिया था। साथ ही वे सरकार के शव और मोटरसाइकिल को घसीटकर पास में स्थित एक नदी तक ले गए थे तथा दोनों को उसमें बहा दिया था।
शीर्ष अदालत ने कहा कि परिस्थितिजन्य साक्ष्य के मामले में मंशा की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
उसने कहा, “प्रत्यक्ष साक्ष्य के मामले में भी मंशा की भूमिका हो सकती है, लेकिन प्रत्यक्ष साक्ष्य के मुकाबले परिस्थितिजन्य साक्ष्य के मामले में यह बहुत ज्यादा महत्व रखती है। यह परिस्थितियों की श्रृंखला की एक महत्वपूर्ण कड़ी है।”
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सर्वोच्च अदालत ने कहा कि अभियोजन पक्ष का पूरा मामला इस अनुमान पर टिका हुआ है कि सरकार की मौत हो गई है।
उसने कहा, “काय अपराध का सिद्धांत (प्रिंसिपल ऑफ कॉर्पस डेलिक्टी) दोनों पक्षों में फैसला देता है कि शव की बरामदगी के बिना सजा दी जा सकती है और दूसरा विचार यह है कि शव की बरामदगी के बिना सजा नहीं दी जा सकती है।”
शीर्ष अदालत ने कहा, “दूसरे विचार की वजह यह है कि हो सकता है, पीड़ित जीवित हो और बाद में सामने भी आ जाए, लेकिन इससे पहले किसी व्यक्ति को उस अपराध के लिए दोषी ठहराया जा चुका होगा और सजा सुना दी गई होगी, जो उसने किया ही नहीं है।”