Nainital: नैनीताल में बैठकर वैज्ञानिक और पर्यावरणविद लगातार इस बात को लेकर चिंता जता रहे हैं कि पहाड़ों में तेजी से हो रहा बेतरतीब निर्माण भविष्य में बड़े खतरे का कारण बन सकता है। उत्तराखंड का इलाका पहले ही प्राकृतिक आपदाओं और भूकंप की दृष्टि से बेहद संवेदनशील माना जाता है।
विशेषज्ञों का बयान
हाल में उत्तरकाशी के धराली में हुई आपदा इसका ताजा उदाहरण है, जिसने तबाही के साथ चेतावनी भी छोड़ दी है। विशेषज्ञों का कहना है कि पर्वतीय क्षेत्रों की मिट्टी अपने स्वभाव से ही नाजुक होती है और जब यहां बड़े पैमाने पर इमारतें, होटल या सड़कें बनाने के लिए पहाड़ों को काटा जाता है तो जमीन की जल सोखने की क्षमता घट जाती है, जिससे थोड़ी सी बारिश भी भूस्खलन और मलबा बहने की वजह बन जाती है।
आर्यभट्ट प्रेक्षण विज्ञान शोध संस्थान नैनीताल के वरिष्ठ वैज्ञानिकों के अनुसार, अंधाधुंध निर्माण से प्राकृतिक संतुलन बिगड़ रहा है। जलवायु परिवर्तन और निर्माण कार्यों के संयुक्त असर से अब लोकल क्लाउड फॉर्मेशन यानी स्थानीय स्तर पर बादलों के असामान्य जमाव की घटनाएं बढ़ रही हैं।
बादल फटने की घटनाएं क्यों हो रही है?
ये बादल अक्सर कम ऊंचाई पर बनते हैं और अचानक एक ही जगह तेज बारिश कर देते हैं, जिससे बादल फटने जैसी घटनाएं होती हैं। मौसम वैज्ञानिक डॉ नरेंद्र सिंह बताते हैं कि निर्माण कार्यों से निकलने वाला रेडिएशन सूर्य की ऊष्मा को परावर्तित कर वायुमंडल का तापमान बढ़ा देता है और जहां निर्माण अधिक होता है वहां तापमान में असामान्य वृद्धि दर्ज की जाती है।
ऐसे होता है मौसम चक्र प्रभावित
ग्लोबल वार्मिंग, जंगलों की कटाई और पहाड़ों में हो रहा भारी निर्माण न सिर्फ मौसम चक्र को प्रभावित कर रहा है बल्कि बादलों की संरचना और गति को भी बदल रहा है। यह बदलाव अचानक भारी बारिश के लिए अनुकूल परिस्थितियां पैदा करता है। पर्यावरणविद मानते हैं कि हिमालयी राज्यों में बिना वैज्ञानिक अध्ययन और भूगर्भीय सर्वे के चल रही बड़ी परियोजनाएं आपदा के खतरे को कई गुना बढ़ा रही हैं। नदियों के किनारे, ढलानों और भूस्खलन संभावित क्षेत्रों में होटलों, रिसॉर्ट्स और सड़कों का निर्माण न केवल भू-संरचना को कमजोर करता है बल्कि आपात स्थिति में राहत और बचाव कार्य को भी मुश्किल बना देता है।
विशेषज्ञ की चेतावनी
पिछले दस साल में चमोली, पिथौरागढ़, टिहरी और रुद्रप्रयाग में बादल फटने की घटनाओं में लगातार बढ़ोतरी हुई है। विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि अगर समय रहते निर्माण गतिविधियों पर नियंत्रण नहीं लगाया गया तो आने वाले वर्षों में इनका असर और भी विनाशकारी हो सकता है। डॉ नरेंद्र का कहना है कि पहाड़ी क्षेत्रों में निर्माण के लिए सख्त भूगर्भीय और पर्यावरणीय मानदंड तय किए जाएं। साथ ही बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण, पारंपरिक पहाड़ी वास्तुकला को अपनाना और प्राकृतिक जल स्रोतों का संरक्षण अनिवार्य बनाया जाए।
उनका मानना है कि विकास और प्रकृति के बीच संतुलन बनाना अब सबसे बड़ी जरूरत है क्योंकि अगर आज सावधानी नहीं बरती गई तो आने वाली पीढ़ियां पहाड़ों की खूबसूरती और उनके अस्तित्व को सिर्फ तस्वीरों में देख पाएंगी। 2010 से 2024 के बीच उत्तराखंड में 70 से ज्यादा बादल फटने की घटनाएं दर्ज हुई हैं और सिर्फ पिछले पांच साल में इनकी संख्या में करीब पैंतीस प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जो साफ इशारा करती है कि खतरा लगातार बढ़ रहा है।