New Delhi: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हालिया चीन यात्रा ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति में नई हलचल पैदा कर दी है। इस दौरान उन्होंने रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से महत्वपूर्ण मुलाकात की, जिसमें ऊर्जा सहयोग, रक्षा साझेदारी और वैश्विक सुरक्षा पर गहन चर्चा हुई। यह बैठक ऐसे समय पर हुई जब अमेरिका और चीन के बीच टैरिफ वार तेज़ हो रहा है, और भारत के लिए संतुलन साधना बेहद अहम हो गया है।
आज की इस विशेष प्रस्तुति में हम विस्तार से चर्चा करेंगे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चीन यात्रा, उनकी रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से हुई मुलाकात, अमेरिका की संभावित प्रतिक्रिया, अमेरिकी टैरिफ वार पर इसके असर और साथ ही विपक्षी दलों की टिप्पणियों पर। पूरा घटनाक्रम सिलसिलेवार ढंग से समझना बेहद जरूरी है क्योंकि यह सिर्फ एक दौरा नहीं बल्कि भारत की विदेश नीति और वैश्विक कूटनीति के भविष्य की दिशा तय करने वाला पड़ाव साबित हो सकता है।
वरिष्ठ पत्रकार मनोज टिबड़ेवाल आकाश ने अपने चर्चित शो The MTA Speaks में इस मुद्दे पर विस्तार से चर्चा की है।
SCO का शिखर सम्मेलन आयोजित
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तियानजिन पहुंचे जहां शंघाई सहयोग संगठन यानी SCO का शिखर सम्मेलन आयोजित हुआ। इस सम्मेलन में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन सहित कई एशियाई और यूरेशियाई देशों के शीर्ष नेता मौजूद थे। मोदी की यह यात्रा ऐसे समय पर हुई जब भारत और चीन के बीच लद्दाख की सीमाओं पर तनाव अभी भी पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है। साथ ही रूस-यूक्रेन युद्ध जारी है और अमेरिका-चीन व्यापारिक तनाव अपने चरम पर है। ऐसे परिदृश्य में मोदी की मौजूदगी और उनके बयान स्वाभाविक रूप से वैश्विक मीडिया और कूटनीतिक हलकों में चर्चा का केंद्र बन गए।
मोदी और शी जिनपिंग की औपचारिक मुलाकात
मोदी और शी जिनपिंग की मुलाकात का स्वरूप औपचारिक रहा, परंतु दोनों के बीच सीमा विवाद पर सीधे संवाद की स्थिति नहीं बनी। हां, व्यापार, क्षेत्रीय सहयोग और बहुपक्षीय मंचों पर सहभागिता की बातें जरूर हुईं। चीन इस समय चाहता है कि भारत उसके साथ व्यापार और निवेश के मामले में अधिक निकटता दिखाए ताकि अमेरिका के बढ़ते टैरिफ और वैश्विक अलगाव की कोशिशों को संतुलित किया जा सके। लेकिन भारत का दृष्टिकोण सतर्क है। सीमा पर जब तक हालात सामान्य नहीं हो जाते तब तक दिल्ली का बीजिंग पर भरोसा सीमित ही रहेगा।
ऊर्जा आपूर्ति और रक्षा सहयोग पर बनी सहमति
सबसे महत्वपूर्ण क्षण तब आया जब प्रधानमंत्री मोदी और रूसी राष्ट्रपति पुतिन की द्विपक्षीय मुलाकात हुई। यह मुलाकात कई मायनों में खास रही। सबसे पहले दोनों नेताओं ने यह संदेश देने की कोशिश की कि भारत और रूस का पुराना भरोसेमंद रिश्ता आज भी कायम है। भारत ने रूस से ऊर्जा आपूर्ति और रक्षा सहयोग को और गहरा करने पर सहमति जताई। पुतिन ने मोदी को भरोसा दिलाया कि रूस भारत की ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए तेल और गैस की आपूर्ति स्थिर रखेगा। दूसरी बड़ी बात यह रही कि मोदी और पुतिन ने यूक्रेन युद्ध के शांतिपूर्ण समाधान पर चर्चा की। मोदी ने फिर वही दोहराया कि “यह युद्ध का युग नहीं है” और बातचीत के माध्यम से ही समाधान निकल सकता है। तीसरी अहम बात रक्षा क्षेत्र से जुड़ी रही। दोनों नेताओं ने एस-400 मिसाइल डिफेंस सिस्टम की डिलीवरी, जॉइंट प्रोडक्शन प्रोजेक्ट्स और समुद्री सुरक्षा सहयोग पर सहमति जताई। चौथी खासियत यह रही कि दोनों ने आर्कटिक क्षेत्र और हिंद महासागर में सहयोग की संभावनाओं पर भी विचार किया। पांचवां बिंदु यह था कि पुतिन और मोदी ने अमेरिका-पश्चिमी दबावों के बावजूद अपने रिश्तों को “स्ट्रेटेजिक ऑटोनॉमी” के उदाहरण के तौर पर पेश किया। यह संकेत था कि भारत अपने हितों के आधार पर निर्णय लेगा, न कि किसी गुट के दबाव में।
वॉशिंगटन के लिए चिंता का विषय
अब सवाल उठता है कि इस पूरी यात्रा और खासकर पुतिन से मुलाकात को अमेरिका किस नजरिये से देखेगा। अमेरिका पहले से ही रूस के खिलाफ कड़े प्रतिबंध लगाए हुए है। यूक्रेन युद्ध को लेकर उसने रूस को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग करने की कोशिश की है। ऐसे समय में भारत का रूस से ऊंचे स्तर पर जुड़ाव वॉशिंगटन के लिए चिंता का विषय है। हालांकि अमेरिका यह भी जानता है कि भारत उसके लिए एक अहम रणनीतिक साझेदार है, खासकर चीन को संतुलित करने के लिए। इसलिए अमेरिका पूरी तरह से नाराजगी जाहिर करने से बचेगा, लेकिन बैकचैनल में जरूर असहजता जताएगा। अमेरिकी विशेषज्ञ यह कह सकते हैं कि भारत को रूस के साथ दूरी बनाए रखनी चाहिए, पर भारत की मजबूरी यह है कि उसकी ऊर्जा जरूरतें रूस से सस्ती दरों पर पूरी होती हैं और रक्षा उपकरणों की बड़ी आपूर्ति भी वहीं से आती है।
अमेरिका-चीन टैरिफ वार के संदर्भ में मोदी की यात्रा का असर अलग ढंग से देखने को मिलेगा। इस समय अमेरिका ने चीन से आयातित सैकड़ों अरब डॉलर के सामान पर भारी टैरिफ लगाया हुआ है। चीन चाहता है कि वह इस दबाव को संतुलित करने के लिए भारत जैसे बड़े बाजार से ज्यादा जुड़ाव बनाए। लेकिन भारत अपनी रणनीति में सावधानी बरत रहा है। वह चीन को खुला दरवाजा नहीं देना चाहता। हां, रूस और चीन के साथ एक ही मंच पर खड़े होकर मोदी ने यह जरूर दिखाया कि भारत “स्ट्रेटेजिक बैलेंसिंग” की नीति पर काम कर रहा है। यानी एक तरफ अमेरिका के साथ Quad और I2U2 जैसे मंचों पर सहयोग, तो दूसरी तरफ रूस और चीन के साथ SCO और BRICS में सहभागिता। इससे भारत को वैश्विक स्तर पर लचीलापन मिलता है और उसे किसी एक ध्रुव पर निर्भर नहीं रहना पड़ता।
यात्रा पर विपक्षी दलों की कड़ी प्रतिक्रिया
लेकिन इस यात्रा पर विपक्षी दलों ने कड़ी प्रतिक्रिया दी। कांग्रेस ने प्रधानमंत्री मोदी पर आरोप लगाया कि वे चीन के सामने झुक रहे हैं। कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने तो यहां तक कह दिया कि यह “तियानजिन में अपमान का दिन” था, जहां “हाथी ड्रैगन के सामने झुक गया।” उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि मोदी सरकार आतंकवाद को लेकर दोहरे मानदंड अपना रही है—एक तरफ पाकिस्तान पर सख्त बयान, दूसरी तरफ चीन की हठधर्मिता पर चुप्पी। कांग्रेस के नेताओं ने सवाल उठाया कि क्या “न्यू नॉर्मल” अब चीन की आक्रामकता और हमारी सरकार की कमजोरी से परिभाषित होगा। AIMIM प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने भी मोदी सरकार की विदेश नीति को लेकर आलोचना की। उन्होंने कहा कि मोदी सरकार का “फ्लिप-फ्लॉप” रवैया भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कमजोर बना रहा है। ओवैसी के मुताबिक कभी चीन के खिलाफ बयान, तो कभी उसी मंच पर बैठकर मुस्कराहट—यह असंगत नीति भारत की साख को नुकसान पहुंचा रही है।
चीन-पाकिस्तान का खतरनाक
राहुल गांधी ने तो पहले ही चेतावनी दी थी कि मोदी सरकार की नीतियों से चीन-पाकिस्तान का खतरनाक सैन्य गठबंधन और मजबूत हो रहा है। उनका कहना है कि सरकार सिर्फ दिखावा करती है, लेकिन असलियत यह है कि सीमा पर हालात लगातार बिगड़ रहे हैं। राहुल गांधी ने ऑपरेशन सिंडूर और रक्षा उपकरणों की खरीद को भी “राजनीतिक नौटंकी” बताया और कहा कि यह सिर्फ जनता का ध्यान भटकाने के लिए किया जा रहा है।
अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की आवाज बुलंद
इन विपक्षी बयानों से साफ है कि मोदी की इस यात्रा को लेकर सियासत भी तेज हो गई है। सत्ता पक्ष का दावा है कि प्रधानमंत्री मोदी ने अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की आवाज बुलंद की है और रूस-चीन जैसे देशों के बीच भारत की अहमियत को रेखांकित किया है। वहीं विपक्ष कहता है कि यह यात्रा भारत की कमजोरी को उजागर करती है और प्रधानमंत्री ने चीन के सामने समर्पण की मुद्रा अपनाई है। वास्तविकता शायद इन दोनों के बीच कहीं है। मोदी की यह यात्रा एक कूटनीतिक संतुलन साधने का प्रयास थी। भारत को अमेरिका और पश्चिमी देशों की जरूरत है तकनीकी, पूंजी और रणनीतिक सहयोग के लिए। लेकिन साथ ही रूस से ऊर्जा और रक्षा सहयोग भी अनिवार्य है। चीन, चाहे दुश्मन की तरह हो या प्रतिद्वंद्वी की तरह, एक पड़ोसी महाशक्ति है जिसे पूरी तरह नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। ऐसे में भारत को हर मंच पर अपनी मौजूदगी दर्ज करानी होगी। SCO में जाना और पुतिन से मिलना इसी रणनीति का हिस्सा है।
यात्रा को लेकर मिश्रित प्रतिक्रियाएं आई सामने
दुनिया भर में इस यात्रा को लेकर मिश्रित प्रतिक्रियाएं आई हैं। रूस ने इसे रिश्तों की मजबूती का प्रतीक बताया। चीन ने कहा कि भारत और चीन मिलकर क्षेत्रीय स्थिरता को आगे बढ़ा सकते हैं। अमेरिका ने आधिकारिक तौर पर संयम बरता लेकिन विश्लेषकों का मानना है कि वॉशिंगटन इससे खुश नहीं है। यूरोपीय देशों ने भी भारत के रुख पर गौर किया है और यह महसूस किया है कि भारत अपनी रणनीतिक स्वतंत्रता को बनाए रखना चाहता है।
भारत को तात्कालिक लाभ
अब सवाल यह है कि इस यात्रा से भारत को तात्कालिक लाभ क्या मिला। सबसे पहले रूस से ऊर्जा आपूर्ति पर भरोसा मिला। दूसरा, रक्षा सहयोग पर ठोस चर्चा हुई। तीसरा, अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की सक्रियता दिखी। चौथा, भारत ने अपने पुराने दोस्त रूस और पड़ोसी प्रतिद्वंद्वी चीन दोनों के साथ संवाद बनाए रखने का संदेश दिया। और पांचवां, दुनिया को यह बताया कि भारत किसी एक खेमे में पूरी तरह नहीं है बल्कि अपनी स्वतंत्र विदेश नीति पर अडिग है।
यह यात्रा आने वाले दिनों में भारत-अमेरिका संबंधों, भारत-रूस साझेदारी और भारत-चीन समीकरण, तीनों को प्रभावित करेगी। अमेरिका चाहेगा कि भारत रूस से दूरी बनाए, लेकिन भारत अपनी आवश्यकताओं को देखते हुए इस संबंध को कायम रखेगा। चीन चाहेगा कि भारत उसके साथ आर्थिक सहयोग बढ़ाए, पर भारत सीमा विवाद के चलते सतर्क रहेगा। रूस चाहेगा कि भारत उसे अंतरराष्ट्रीय अलगाव से बाहर निकाले, और भारत यह संतुलन बनाए रखने की कोशिश करेगा।
मोदी की चीन यात्रा और पुतिन से मुलाकात
कुल मिलाकर, मोदी की चीन यात्रा और पुतिन से मुलाकात ने एक बार फिर यह साफ कर दिया कि 21वीं सदी की कूटनीति में भारत की भूमिका सिर्फ एक दर्शक की नहीं बल्कि एक निर्णायक खिलाड़ी की है। विपक्ष इस पर चाहे जो भी आरोप लगाए, लेकिन वैश्विक परिप्रेक्ष्य में भारत की मौजूदगी और उसकी स्वतंत्र आवाज को नकारा नहीं जा सकता। यह था YouTube मंच The MTA Speaks पर आज का विशेष विश्लेषण। आप चाहे तो इसकी पूरी वीडियो ऊपर दिए गए वीडियो पर क्लिक करके देख सकते हैं।