एक बार फिर लगी मुहरः डा. बिंदेश्वर पाठक ने पूरा किया राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का सपना, राष्ट्रपति के हाथों ऊषा चौमर को मिला पद्मश्री
विश्वभर में समाजसेवा के मशहूर प्रमुख भारतीय समाजिक कार्यकर्ता डा. बिंदेश्वर पाठक की कल्याणकारी योजनाओं पर एक बार फिर मुहर लगी है। डा. बिंदेश्वर पाठक द्वारा स्थापित सुलभ इंटरनेशनल से जुड़ी ऊषा चौमर को राष्ट्रपति ने उनके उल्लेखनीय योगदान के लिये पद्मश्री सम्मान से नवाजा है। पढ़िये डाइनामाइट न्यूज की पूरी रिपोर्ट
नई दिल्ली: भारत में मैला ढोने की कुप्रथा के खिलाफ सबसे पहले अभियान चलाने और इस सामाजिक अभिशाप को खत्म करने समेत तमाम कल्याणकारी कार्यों के जरिये राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सपनों को आज भी पूरा करने में जुटे विश्वविख्यात भारतीय सामाजिक कार्यकर्ता एवं उद्यमी डा. बिंदेश्वर पाठक के नाम से हर कोई वाकिफ है। मैला ढ़ोने वाले देश के हजारों-लाखों लोगों के जीवन में रंग भरने, सुलभ इंटरनेशनल की स्थापना करने और भारत में स्वच्छता अभियान की शुरूआत करने वाले डा. बिंदेश्वर पाठक की कल्याणकारी मुहिम पर एक बार फिर मुहर लगी है। राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने डा. बिंदेश्वर पाठक के सुलभ इंटरनेशनल संगठन से जुड़ी ऊषा चौमर को इस साल पद्मश्री सम्मान से नवाजा है।
I’m glad to share this, a special moment for me, as I watched Usha Chaumar (Sharma) receive country’s fourth-highest honour, Padma Shri at the hands of Hon'ble President of India. My best wishes for her bright future.@rashtrapatibhvn #Padmashri #PadmaShri2020 pic.twitter.com/6IYFPcttYN
— Bindeshwar Pathak (@bindeshwarpatha) November 8, 2021
मैला ढ़ोने वाली ऊषा चौमर की यूं बदली जिंदगी
देश के सबसे बड़े नागिरक सम्मानों यानि पद्म पुरस्कारों में शामिल पद्मश्री से सम्मानित होना उषा चौमर के लिये एक सपने की तरह है। राजस्थान के अलवर की रहने वाली ऊषा चौमर 17-18 साल पहले तक घरों मैला ढ़ोने का काम करती थी और लोग उनसे इतनी घृणा करते थी कि उनकी इनकी परछाई देखकर भी भाग जाते थे। 10 साल की उम्र में ही ऊषा चौमर की शादी हो गई थी। घरों में मैला ढोने के लिये जाने वाली ऊषा को छूने से हर कोई बचता था। उसको मंदरों और घरों में जाने की इजाजत नहीं थी। लेकिन 2003 में जब वे विश्वविख्यात समाजिक कार्यकर्ता डा. बिंदेश्वर पाठक और उनके सुलभ इंटरनेशनल संस्थान के संपर्क में आई तो ऊषा चौमर के जीवन में चमात्कारिक परिवर्तन होना शुरू हुआ।
डा. बिंदेश्वर पाठक से मिली प्रेरणा
डा. बिंदेश्वर पाठक की शिक्षा और उनसे प्रेरित होकर ऊषा चौमर सुलभ इंटरनेशनल से जुड़ीं और उनका जीवन एकाएक बदलने लगा। मैला उठाने की कुप्रथा से सालों तक जूझने और एक अछूत की जिंदगी काटने वाली ऊषा चौमर ने सुलभ इंटरनेशनल संस्थान में आचार बनाना, सिलाई करने जैसे अन्य कई काम शुरू किये। अच्छी कमाई के साथ सम्मानजनक कार्य होने के कारण ऊषा चौमर ने खुद जैसी कई महिलाओं को सुलभ इंटरनेशनल में इस कार्य से जोड़ा। स्वयं सहायता समूह नई दिशा बनाकर कई ऊषा चौमर ने महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने में अहम योगदान दिया और खुद जैसी कई महिलाओं को मैला ढ़ोने के अभिशाप से मुक्त किया।
हमेशा के लिये छोड़ा मेला ढ़ोना
यह भी पढ़ें |
राष्ट्रपति चुनाव हुआ दिलचस्प, रामनाथ कोविंद Vs मीरा कुमार
आज सुलभ इटंरनेशल और ऊषा चौमर के कारण कई महिलाएं आत्मनिर्भर हैं और वे हमेशा के लिये मैला ढ़ोने का काम छोड़ चुके हैं। ऊषा के पति मजदूरी करते हैं। उसके दो बेटे और एक बेटी। बेटी ग्रेजुएशन कर रही है और एक बेटा पिता के साथ ही मजदूरी करता है।
फर्श से अर्श की कहानी
मैला ढ़ोने की कुप्रथा के खिलाफ आज ऊषा चौमर बुलंद आवाज बन चुकी है। फर्श से अर्श तक यानि पद्मश्री मिलने तक का ऊषा चौमर यह सफर डा. बिंदेश्वर पाठक और सुलभ इंटरनेशनल के बिना कभी पूरा नहीं होता। आइये इस मौके पर जानिये विश्वविख्यात डा. बिंदेश्वर पाठक के बारे में भी कुछ खास बातें।
जानिये कौन है डॉ बिन्देश्वर पाठक
डॉ बिन्देश्वर पाठक मूल रूप से बिहार के रामपुर के रहने वाले हैं। समाज शास्त्र में स्नातक की उपाधि लेने के बाद 1967 में वे बिहार गांधी जन्म शताब्दी समारोह समिति से जुड़े, जहां उन्होंने एक प्रचारक के रूप में कार्य करना शुरू किया। इसके बाद उन्होंने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विचारों को आत्मसात करना शुरू किया। मैला ढ़ोना, अश्यपृश्यता, स्वच्छता, स्वाधीनता, अंतोदय जैसे कई विचारों पर कार्य की शुरूआत कर उन्होंने गांधी जी सपनों को पूरा करने की ठानी। देश में शौचालय निर्माण की दिशा में उन्होंने बहुत शोध किया, जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने 1970 में सबसे पहले सुलभ शौचालय संस्थान की स्थापना की। यह देश को मैला ढ़ोने की कुप्रथा से आजादी दिलाने की अपनी तरह की पहली मुहिम थी, जो देखते-देखते कुछ ही सालों में सुलभ इण्टरनेशनल सोशल सर्विस आर्गनाइजेशन के रूप में देश के अन्य राज्यों के साथ विदेशों में भी शुरू हुई।
डिस्पोजल कम्पोस्ट शौचालय का आविष्कार
देश में स्वच्छता अभियानों और शौचालय निर्माण की मुहिम के साथ डॉ. पाठक ने ही सबसे पहले देश में डिस्पोजल कम्पोस्ट शौचालय का आविष्कार किया, जो कम खर्च में घर के आसपास मिलने वाली सामग्री से बनाया जा सकता है। यह आगे चलकर बेहतरीन वैश्विक तकनीकों में से एक माना गया। सुलभ इंटरनेशनल की मदद से देशभर में सुलभ शौचालयों की शृंखला स्थापित करने में उनकी यह तकनीक बेहद फायदेमंद साबित हुई।
यह भी पढ़ें |
यूपी सीएम योगी आदित्यनाथ डाइनामाइट न्यूज़ पर LIVE..
यूएन से मिली वर्ल्ड टॉयलेट डे को मान्यता
डा बिंदेश्वर पाठक 2001 से भारत में 'वर्ल्ड टॉयलेट डे' मना रहे हैं। बिंदेश्वर पाठक के प्रयासों से ही 19 नवंबर 2013 में संयुक्त राष्ट्र ने वर्ल्ड टॉयलेट डे को मान्यता दी। 2019 में वर्ल्ड टॉयलेट डे की थीम ‘लीविंग टु नो वन बिहाइंड’ यानी किसी को पीछे नहीं छोड़ना है, जो टिकाऊ विकास के लक्ष्य को ध्यान में रखकर बनाई गई है।
गांधीवादी डा बिंदेश्वर पाठक के नाम पद्म भूषण समेत कई सम्मान
देश में सिर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा, देश को खुले में शौच मुक्त करने, छुआछूत को खत्म करने, समतामूलक समाज को बनाने जैसी कई कल्याणकारी मुहिम के जरिये डा. पाठक गांधीजी के सपने को साकार करने में सालों से जुटे हुए हैं। वे कई प्रतिष्ठित सामाजिक संस्थानों और संगठनों से भी जुड़े हुए हैं। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनको कई सम्मानों से नवाजा गया है। अपने तमाम तरह के सामाजिक कार्यों और कल्याणकारी योदनाओं के जरिये गांधीवाद को आज भी जीवंत बनाये रखने वाले डा बिंदेश्वर पाठक को 2003 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।