बिहार में महागठबंधन को हराने के लिए ‘अनोखे’ समीकरण पर भाजपा का ध्यान केंद्रित, पढ़ें पूरी रिपोर्ट

डीएन ब्यूरो

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जदयू के जनाधार में सेंध लगाने पर निर्भर करती है। जदयू को लंबे समय से गैर-यादव पिछड़ी जातियों और दलित समुदायों का व्यापक समर्थन हासिल है। पढ़िये डाइनामाइट न्यूज़ की पूरी रिपोर्ट

(फाइल फोटो )
(फाइल फोटो )


नयी दिल्ली:भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) 2024 के लोकसभा चुनाव में बिहार में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और जनता दल यूनाइटेड (जदयू) के महागठबंधन को हराने के लिए ‘अनोखे’ सामाजिक समीकरण पर ध्यान केंद्रित कर रही है, जिसमें ‘अगड़ी’ जातियों के साथ-साथ ज्यादातर पिछड़े समुदाय शामिल हैं।

डाइनामाइट न्यूज़ संवाददाता के अनुसार बिहार में सत्तारूढ़ महागठबंधन में लालू प्रसाद की राजद भले ही सबसे मजबूत पार्टी है, लेकिन भाजपा का मानना है कि उसकी जीत की राह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जदयू के जनाधार में सेंध लगाने पर निर्भर करती है। जदयू को लंबे समय से गैर-यादव पिछड़ी जातियों और दलित समुदायों का व्यापक समर्थन हासिल है।

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह रविवार को मौर्य शासक अशोक की जयंती पर बिहार में आयोजित विभिन्न कार्यक्रमों में हिस्सा लेंगे। यह पिछले सात महीनों में बिहार का उनका चौथा दौरा होगा। इस दौरान शाह के जो कार्यक्रम निर्धारित किए गए हैं, उन्हें बिहार में आबादी के लिहाज से मजबूत कुशवाहा (कोइरी) समुदाय को साधने की भाजपा की महत्वाकांक्षी रणनीति के प्रमुख हिस्से के रूप में देखा जा रहा है।

कुशवाहा समुदाय का मानना है कि सम्राट अशोक उससे ताल्लुक रखते हैं।

बिहार की आबादी में कुशवाहा समुदाय की हिस्सेदारी सात से आठ प्रतिशत के करीब होने का अनुमान है, जो यादव समुदाय के बाद सर्वाधिक है। चुनावों में कुशवाहा समुदाय ने पारंपरिक रूप से नीतीश का समर्थन किया है।

भाजपा ने कुशवाहा समुदाय से जुड़े सम्राट चौधरी को अपना प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त कर इस समुदाय के लोगों को लुभाने की हर संभव कोशिश करने की अपनी मंशा जाहिर कर दी है।

चौधरी ने नीतीश पर निशाना साधते हुए कहा कि बिहार के मुख्यमंत्री ने कुशवाहा समुदाय के लिए कुछ भी नहीं किया है, उन्होंने उसे सिर्फ ‘धोखा’ दिया है।

उन्होंने जोर देकर कहा कि भाजपा को बिहार में विभिन्न समुदायों का समर्थन मिलेगा, जो लोकसभा में 40 सांसद भेजता है।

भाजपा नेताओं ने कहा कि बिहार में यादव और कुर्मी (नीतीश इसी जाति से ताल्लुक रखते हैं) दोनों समुदाय के मुख्यमंत्री रह चुके हैं, ऐसे में कुशवाहा समुदाय को लगता है कि राज्य में अब उसका मुख्यमंत्री होना चाहिए। उन्होंने कहा कि भाजपा अपने फायदे के लिए इसी बात को भुना सकती है।

बिहार के वयोवृद्ध नेता एवं राजद-जदयू गठबंधन के मुखर आलोचक नागमणि ने कहा कि लोग ‘लालू-नीतीश’ के तीन दशक से अधिक लंबे शासन से ऊब चुके हैं। उन्होंने कहा कि यादवों और कुर्मियों की सत्ता में भागीदारी रही है, लेकिन कुशवाहा पीछे रह गए हैं।

नागमणि कुशवाहा समुदाय से आते हैं।

कुशवाहा समुदाय का समर्थन हासिल करने की कोशिशों के साथ-साथ भाजपा आबादी के लिहाज से छोटी ऐसी कई जातियों के बीच अपना जनाधार बढ़ाने की व्यापक योजना पर भी काम कर रही है, जो अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) के दायरे में आती हैं। ये जातियां चुनावी नतीजों का रुख पलटने में अहम भूमिका निभा सकती हैं।

भाजपा के एक नेता ने कहा कि पार्टी ने इसी वजह से शंभू शरण पटेल को पिछले साल राज्यसभा चुनाव में अपना उम्मीदवार बनाया था। गौरतलब है कि पटेल को पार्टी संगठन में ज्यादा समर्थन हासिल नहीं है, लेकिन वह धानुक जाति से आते हैं, जो ईबीसी का हिस्सा है। माना जाता है कि इसी वजह से राज्यसभा चुनाव की उम्मीदवारी में उनका पलड़ा भारी साबित हुआ।

मुकेश साहनी के नेतृत्व वाली विकासशील इनसान पार्टी जैसे दलों तक पहुंच बनाने की भाजपा की कोशिशों को भी इसी रणनीति के हिस्से के रूप में देखा जाता है। सहनी पारंपरिक रूप से केवट के रूप में काम करने वाली कई उपजातियों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं।

भाजपा ने लोक जनशक्ति पार्टी (राम विलास) के नेता चिराग पासवान के साथ भी सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखे हैं, जो राज्य में सबसे अधिक आबादी वाले दलित समुदाय, पासवानों के बीच काफी लोकप्रिय हैं।

नीतीश के नेतृत्व में जदयू-भाजपा के पूर्व गठबंधन के दौरान ‘अगड़ी जातियां’ और ज्यादातर पिछड़ी जातियां भले ही एक गठबंधन के समर्थन के लिए साथ आई थीं, लेकिन वे पारंपरिक रूप से अलग-अलग पार्टियों की समर्थक रही हैं।

अब भाजपा इन जातियों को अपने समर्थन में एक साथ लाने की दुर्लभ उपलब्धि हासिल करने पर ध्यान केंद्रित कर रही है।

उत्तर प्रदेश में भाजपा ‘अगड़ी’ जातियों, ज्यादातर पिछड़े समुदायों और दलितों की एक बड़ी आबादी को मिलाकर ‘अनोखा’ सामाजिक समीकरण बनाने में सफल रही है, ताकि एकजुट विपक्ष से मिलने वाली चुनौती से निपटा जा सके, जैसा कि 2019 में देखा गया था, जब समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने मिलकर चुनाव लड़ा था।

बिहार में पिछड़ी जातियों का झुकाव पारंपरिक रूप से समाजवादी विचारधारा वाली ‘मंडल’ पार्टियों की तरफ रहा है। भाजपा आगामी चुनावों में इस चलन को बदलने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रही है।

2014 की तरह ही, 2024 में भी भाजपा के बिहार में अपेक्षाकृत छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन कर मुख्यत: अपने दम पर चुनाव लड़ने की संभावना है। हालांकि, 2014 के विपरीत 2024 में राजद और जदयू के साथ चुनाव लड़ने की उम्मीद है। वाम दलों और कांग्रेस के भी उनके गठबंधन का हिस्सा होने की संभावना है।

2014 के आम चुनाव में भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) ने बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से 31 पर जीत दर्ज की थी और लगभग 39 प्रतिशत वोट हासिल किए थे।

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि 2024 के लोकसभा चुनावों में ऐसी ही कामयाबी हासिल करने के लिए भाजपा को एकजुट विपक्ष के खिलाफ और अधिक मतदाताओं आकर्षित करने की आवश्यकता होगी।

 










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