बंबई हाई कोर्ट ने सरकार बदलने के बाद इस तरह के बदलाव को बताया लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा

डीएन ब्यूरो

बंबई उच्च न्यायालय ने कहा है कि सरकार में परिवर्तन के साथ ही सामाजिक नीति में बदलाव लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा है और नीतियों और कार्यक्रमों के क्रियान्वन में रद्दोबदल को मनमाना या भेदभावपूर्ण नहीं कहा जा सकता। पढ़ें पूरी रिपोर्ट डाइनामाइट न्यूज़ पर

बंबई उच्च न्यायालय
बंबई उच्च न्यायालय


मुंबई: बंबई उच्च न्यायालय ने कहा है कि सरकार में परिवर्तन के साथ ही सामाजिक नीति में बदलाव लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा है और नीतियों और कार्यक्रमों के क्रियान्वन में रद्दोबदल को मनमाना या भेदभावपूर्ण नहीं कहा जा सकता।

डाइनामाइट न्यूज़ संवाददाता के अनुसार न्यायमूर्ति गौतम पटेल और न्यायमूर्ति नीला गोखले की खंडपीठ ने एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली वर्तमान राज्य सरकार द्वारा महाराष्ट्र अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों की नियुक्ति रद्द करने के दिसंबर 2022 के आदेश को निरस्त करने से इनकार कर दिया।

खंडपीठ ने मंगलवार को रामहरि दगड़ू शिंदे, जगन्नाथ मोतीराम अभ्यंकर और किशोर मेधे की ओर से दायर वह याचिका खारिज कर दी, जिसमें एकनाथ शिंदे सरकार के संबंधित आदेश को रद्द करने की मांग की गयी थी।

अभ्यंकर आयोग के अध्यक्ष थे, जबकि अन्य दो इसके सदस्य थे। उन्हें 2021 में तीन साल की अवधि के लिए नियुक्त किया गया था।

याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि हर बार सरकार में बदलाव होते ही, नयी सरकार के समर्थकों को समायोजित करने के लिए प्रशासन में बदलाव किए जाते हैं और यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ है।

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पीठ ने अपने आदेश में कहा कि याचिकाकर्ताओं को पद पर बने रहने का कोई मौलिक अधिकार नहीं है और इसलिए उनकी नियुक्तियों को रद्द करने के सरकारी आदेश को ‘मनमाना या भेदभावपूर्ण’ नहीं कहा जा सकता।

अदालत ने कहा, ‘‘सरकार में परिवर्तन के साथ ही सामाजिक नीति में बदलाव लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा है और नीतियों और कार्यक्रमों के क्रियान्वन में रद्दोबदल को मनमाना या भेदभावपूर्ण नहीं कहा जा सकता।’’

पीठ ने कहा कि याचिकाकर्ताओं को किसी चयन प्रक्रिया का पालन किये बिना या आम जनता से आवेदन आमंत्रित किए बगैर सरकार के विवेकाधिकार के तहत मनोनीत किया गया था।

उच्च न्यायालय ने कहा, ‘‘इस तरह की नियुक्ति को सरकार की मर्जी के तौर पर समझा जाना चाहिए। वास्तव में, आयोग का अस्तित्व ही सरकार की मर्जी पर आधारित है।’’

आयोग की स्थापना एक कार्यकारी आदेश के जरिये की गयी है और इस प्रकार एक कार्यकारी आदेश के माध्यम से इसे समाप्त भी किया जा सकता है।

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उच्च न्यायालय ने कहा कि संबंधित पदों पर याचिकाकर्ताओं का मनोयन भी सरकार के एक कार्यकारी आदेश द्वारा किया गया था और इसे सरकार के एक कार्यकारी आदेश द्वारा रद्द किया जा सकता है।

खंडपीठ ने कहा, ‘‘हमें यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि आयोग के अध्यक्ष/सदस्यों के पदों पर याचिकाकर्ताओं की नियुक्तियों को रद्द करने के आदेश को अवैध, गैरकानूनी या दोषपूर्ण नहीं कहा जा सकता है।’’

याचिका में कहा गया था कि एकनाथ शिंदे के मुख्यमंत्री और देवेंद्र फडणवीस के उपमुख्यमंत्री बनने के बाद उनकी (याचिकाकर्ताओं की) नियुक्ति रद्द कर दी गई थी।

याचिकाकर्ताओं ने शिकायत की थी कि नियुक्तियों को रद्द करने का ऐसा निर्णय उन्हें सुनवाई का अवसर दिए बिना या कोई कारण बताए बिना, अचानक लिया गया था, इसलिए यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन था।

याचिकाकर्ताओं के वकील एसबी तालेकर ने दलील दी थी कि पिछले सरकार के फैसलों को केवल इसलिए नहीं बदला जा सकता क्योंकि वे वर्तमान सरकार के सत्ता में आने से पहले सत्ता में रहे प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दलों द्वारा लिये गये थे।










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