निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर विशेषज्ञों ने जतायी ये अलग-अलग राय
मुख्य निर्वाचन आयुक्त (सीईसी) और निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति की प्रक्रिया के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ के फैसले की कुछ विशेषज्ञों ने सराहना की जबकि अन्य ने कहा कि शीर्ष अदालत को कानून बनाने तथा कार्यपालिका और विधायिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है। पढ़ें पूरी रिपोर्ट डाइनामाइट न्यूज़ पर
नयी दिल्ली: मुख्य निर्वाचन आयुक्त (सीईसी) और निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति की प्रक्रिया के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ के फैसले की कुछ विशेषज्ञों ने सराहना की जबकि अन्य ने कहा कि शीर्ष अदालत को कानून बनाने तथा कार्यपालिका और विधायिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है।
डाइनामाइट न्यूज़ संवाददाता के अनुसार उच्चतम न्यायालय ने सीईसी और निर्वाचन आयुक्तों (ईसी) की नियुक्ति को कार्यपालिका के हस्तक्षेप से बचाने के उद्देश्य से एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए बृहस्पतिवार को कहा कि उनकी नियुक्तियां प्रधानमंत्री, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) की एक समिति की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा की जाएंगी ताकि ‘‘चुनाव प्रक्रिया की शुचिता’’ कायम रह सके।
न्यायमूर्ति के. एम. जोसेफ की अध्यक्षता वाली पांच-सदस्यीय संविधान पीठ ने अपने सर्वसम्मत फैसले में कहा कि यह नियम तब तक कायम रहेगा जब तक संसद इस मुद्दे पर कोई कानून नहीं बना लेती।
पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त एस. वाई. कुरैशी ने कहा कि यह एक ‘‘बेहतरीन निर्णय’’ है।
कुरैशी 30 जुलाई, 2010 और 10 जून, 2012 के बीच मुख्य निर्वाचन आयुक्त रहे थे।
उन्होंने कहा, ‘‘निर्वाचन आयोग पिछले 20 साल या उससे अधिक समय से इसकी मांग कर रहा है। मौजूदा सीईसी खुद इसके बारे में कई बार लिख चुके हैं। मैंने इस संबंध में तत्कालीन सीईसी के रूप में और पूर्व सीईसी के रूप में बार-बार पत्र लिखा है कि निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति कॉलेजियम के माध्यम से होनी चाहिए।’’
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कुरैशी ने कहा, ‘‘सीईसी के रूप में पदोन्नति (निर्वाचन आयुक्तों की) वरिष्ठता के आधार पर स्वत: होनी चाहिए और जिस तरह से पद से हटाये जाने के संबंध में सीईसी को संरक्षण उपलब्ध हैं, उसी तरह दो अन्य सदस्यों (निर्वाचन आयोग के) को भी संरक्षण मिलना चाहिए।’’
सीईसी और संवैधानिक न्यायालयों के न्यायाधीशों को केवल महाभियोग प्रक्रिया के माध्यम से संसद द्वारा हटाया जा सकता है जबकि निर्वाचन आयुक्तों को सीईसी की सिफारिश पर सरकार द्वारा हटाया जा सकता है।
सरकार वरिष्ठतम निर्वाचन आयुक्त को सीईसी के रूप में नियुक्त करने की परंपरा का पालन करती रही है।
पूर्व केंद्रीय कानून सचिव पी. के. मल्होत्रा का मानना है कि फैसले से ऐसा लग रहा है कि शीर्ष अदालत कानून बना रही है, जो उसका नहीं बल्कि संसद का अधिकार क्षेत्र है।
उन्होंने कहा, ‘‘आप मूल रूप से एक ऐसे क्षेत्र में कानून बना रहे हैं जहां आपके पास कोई अधिकार नहीं है। आप कानून की व्याख्या कर सकते हैं, आप संविधान की व्याख्या कर सकते हैं... यहां तक तो ठीक है। पीठ ने अधिक पारदर्शिता के लिए कहा होगा। लेकिन न्यायाधीशों की नियुक्ति के संबंध में भी यही कहा जा सकता है कि पारदर्शिता होनी चाहिए, प्रक्रिया होनी चाहिए।’’
उन्होंने कहा, ‘‘उच्चतम न्यायालय, केवल इसलिए कि उसके पास निर्देश जारी करने का अधिकार है, संविधान के तहत कार्यपालिका के क्षेत्र में आने वाले विषय के संबंध में एक निर्देश जारी करता है, मुझे लगता है कि यह उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर है।’’ लोकसभा के पूर्व महासचिव एवं संविधान विशेषज्ञ पी. डी. टी. आचारी ने कहा कि खबरों के अनुसार, यह एक स्वागत योग्य कदम है क्योंकि यह परंपरा से हटकर है।
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उन्होंने कहा कि अब तक, सरकार अन्य एजेंसियों से परामर्श किए बिना निर्वाचन आयोग के सदस्यों की नियुक्ति कर रही थी।
उन्होंने कहा, ‘‘अब विधायिका और न्यायपालिका दोनों निर्णय लेने की प्रक्रिया का हिस्सा होंगी। यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटनाक्रम है। यह बहुत अच्छा फैसला है।’’
आचारी ने कहा कि फैसला अस्थायी प्रकृति का है और संसद द्वारा इस मुद्दे पर कानून बनाए जाने तक लागू रहेगा। उन्होंने कहा, ‘‘इसमें वे कुछ और सुझाव दे सकते हैं।’’
एक अन्य पूर्व सीईसी ने कहा कि ‘‘फिर प्रधानमंत्री को न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक निकाय की अध्यक्षता करनी चाहिए।’’