New Delhi: भारत अनेक धार्मिक परंपराओं और सांस्कृतिक विविधताओं का देश है। यहां हिंदू और मुस्लिम धर्म के मानने वाले बड़ी संख्या में रहते हैं और दोनों की जीवन एवं मृत्यु से जुड़ी रीति-रिवाज भिन्न होते हैं। जहां हिंदू धर्म में मृत्यु के बाद शरीर का दाह संस्कार होता है, वहीं इस्लाम में शव को दफनाने यानी सुपुर्द-ए-ख़ाक करने की परंपरा है। यह लेख मुस्लिम समुदाय में अंतिम संस्कार की विधि, उसके धार्मिक महत्व, और उससे जुड़ी सामाजिक भावनाओं को विस्तार से समझाता है।
मृत्यु पर कहे जाने वाले शब्द
मुस्लिम समुदाय में किसी व्यक्ति की मृत्यु होने पर सबसे पहले कहा जाता है “इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन”, जिसका अर्थ है, “निश्चित ही हम अल्लाह के हैं और उसी की ओर लौट कर जाएंगे।” यह वाक्य इस्लामिक आस्था का प्रतीक है, जिसमें यह स्वीकार किया जाता है कि जीवन और मृत्यु अल्लाह की इच्छा से होती है।
मृतक को पवित्र करना
मृत्यु के बाद सबसे पहला धार्मिक कर्तव्य होता है ग़ुस्ल देना, यानी मृतक शरीर को स्नान कराना। इस प्रक्रिया में शरीर को साफ पानी से धोया जाता है। ग़ुस्ल देने की ज़िम्मेदारी आमतौर पर मृतक के परिवार के सदस्यों या नज़दीकी रिश्तेदारों द्वारा निभाई जाती है। ग़ुस्ल के दौरान शरीर को तीन बार धोया जाता है- पहले पानी से, फिर साबुन या किसी खुशबूदार चीज से और अंत में फिर से पानी से।
सफेद कपड़े में लपेटना
ग़ुस्ल के बाद शव को कफ़न पहनाया जाता है, जो सादा, बिना सिला हुआ सफेद कपड़ा होता है। पुरुषों के लिए तीन कपड़े और महिलाओं के लिए पाँच कपड़े इस्तेमाल किए जाते हैं। कफ़न इस्लामी सादगी का प्रतीक होता है- इसमें कोई आभूषण या सजावट नहीं होती। शव को सम्मानपूर्वक इन कपड़ों में लपेटा जाता है।
नमाज़-ए-जनाज़ा
कफ़न के बाद नमाज़-ए-जनाज़ा अदा की जाती है, जो मृतक के लिए सामूहिक प्रार्थना होती है। यह नमाज़ मस्जिद में या कब्रिस्तान में अदा की जाती है। इसमें मौजूद लोग मृतक की आत्मा की शांति और अल्लाह से उसकी माफ़ी की दुआ करते हैं। नमाज़-ए-जनाज़ा की विशेषता यह है कि इसमें रुकू-सजदा नहीं होते, बल्कि केवल खड़े होकर चार तकबीरें और दुआएं पढ़ी जाती हैं।
दफ़्न की प्रक्रिया
जनाज़े के बाद शव को कब्रिस्तान ले जाया जाता है, जहां दफ़्न (दफनाना) किया जाता है। शव को दाईं करवट पर इस तरह रखा जाता है कि उसका चेहरा क़िबला (मक्का की दिशा) की ओर हो। इसके बाद कब्र को मिट्टी से भर दिया जाता है। परंपरागत रूप से तीन बार मिट्टी डाली जाती है- यह दर्शाता है कि इंसान मिट्टी से बना है और मिट्टी में ही लौटता है।
कब्र की माप और संरचना
इस्लाम में कब्र की माप को लेकर भी स्पष्ट दिशा-निर्देश हैं। आमतौर पर कब्र की लंबाई मृतक व्यक्ति से 1-2 फीट अधिक होती है ताकि शरीर को आराम से रखा जा सके। चौड़ाई लगभग 2-3 फीट और गहराई 3-5 फीट तक होती है। कब्र की खुदाई करते समय यह ध्यान रखा जाता है कि उसमें मृतक को आसानी से लिटाया जा सके और उसे कोई असुविधा महसूस न हो यह बात भावनात्मक रूप से कही जाती है, ताकि शव को पूरे सम्मान के साथ दफनाया जा सके।
मिट्टी डालने की परंपरा
दफनाए जाने के बाद, कब्र पर मिट्टी डालना अंतिम प्रक्रिया होती है। पारंपरिक रूप से एक व्यक्ति तीन बार मिट्टी डालता है और फिर उपस्थित लोग भी अपने हाथों से थोड़ी मिट्टी डालते हैं। यह न केवल धार्मिक परंपरा है, बल्कि मृतक को अंतिम विदाई देने का भावनात्मक क्षण भी होता है।
सुपुर्द-ए-ख़ाक का आध्यात्मिक महत्व
“सुपुर्द-ए-ख़ाक” शब्द का अर्थ है मिट्टी के हवाले करना। इस्लाम में माना जाता है कि इंसान मिट्टी से बना है और अंततः मिट्टी में ही मिल जाता है। यह प्रक्रिया हमें जीवन की क्षणभंगुरता और मृत्यु की सच्चाई का स्मरण कराती है। सुपुर्द-ए-ख़ाक केवल एक अंतिम संस्कार नहीं, बल्कि एक आध्यात्मिक यात्रा का समापन है।
मृत्यु के बाद की दुआएं और रस्में
दफ़्न के बाद परिवार और समाजजन मिलकर मृतक के लिए कुरान की आयतें पढ़ते हैं और मग़फ़िरत (माफ़ी) की दुआ करते हैं। तीन दिन, सात दिन या चालीस दिन की रस्में अलग-अलग स्थानों पर परंपराओं के अनुसार निभाई जाती हैं। इनका उद्देश्य मृतक आत्मा की शांति और परिजनों को सांत्वना देना होता है।