अनेकों योजनाओं के बाद भी भारत में लगभग 1.21 करोड़ दिव्यांग अशिक्षित हैं, आखिर क्यों?
देश भर में दिव्यांग को समाज की मुख्यधारा में शामिल करने और उनके बुलंद इरादों को प्रोत्साहित करने के लिए भले ही प्रधानमंत्री जोर-शोर से अभियान चला रहे हैं। लेकिन शिक्षा और रोजगार के अवसर की बात करें तो कहीं ना कहीं दिव्यांग आज भी पीछे है। यह रिपोर्ट पढ़िए..
नई दिल्ली: दिव्यांगों की मदद के लिए सरकार भले की कई योजना चलाने का दावा करती है, लेकिन इन योजनाओं का लाभ उन तक कितना पहुंच रहा है उसका कोई आंकड़ा नहीं है। सरकारी दस्तावेजों में केंद्र सरकार द्वारा दिसंबर, 2015 में विकलांगों के लिए 'एक्सेसिबल इंडिया' अभियान शुरू करने से ठीक पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विकलांगों को 'दिव्यांग' कहने की अपील की थी। जिसके पीछे उनका तर्क था कि किसी अंग से लाचार व्यक्तियों में ईश्वर प्रदत्त कुछ खास विशेषताएं होती हैं। इसके बाद कई सामाजिक कार्यकर्ताओं ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर कहा था कि सिर्फ शब्द बदलने से विकलांगों के साथ होने वाला भेदभाव खत्म नहीं होने वाला। साथ ही सामाजिक कार्यकर्ताओं ने प्रधानमंत्री से उन गतिरोधों को दूर करने की भी अपील की थी। जिनकी वजह से दिव्यांग देश की आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक प्रगति में सहभागिता नहीं कर पाते।
देश में विकलांग व्यक्ति (समान अवसर, अधिकार संरक्षण एवं पूर्ण भागीदारी) अधिनियम के पारित हुए 22 वर्ष हो चुके हैं, लेकिन शिक्षा और रोजगार के अवसर की बात करें तो इन 22 वर्षो में देश में विकलांगों या दिव्यांगों की आज स्थिति क्या है?
जनगणना-2011 के अनुसार देश की 45 फीसदी विकलांग आबादी अशिक्षित है। जबकि पूरी आबादी की बात की जाए तो अशिक्षितों का प्रतिशत 26 है। दिव्यांगों में भी जो शिक्षित हैं। उनमें 59 फीसदी 10वीं पास हैं, जबकि देश की कुल आबादी का 67 फीसदी 10वीं तक शिक्षित है।
सर्व शिक्षा अभियान के तहत सभी को एक समान शिक्षा मुहैया कराने का वादा तो किया गया है। बावजूद इसके शिक्षा व्यवस्था से बाहर रहने वाली आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा विकलांग बच्चों का है। 6-13 आयुवर्ग के विकलांग बच्चों की 28 फीसदी आबादी स्कूल से बाहर है। विकलांगों के बीच भी विशेषीकृत करें तो ऐसे बच्चे जिनके एक से अधिक अंग अपंग हैं, उनकी 44 फीसदी आबादी शिक्षा से वंचित है। जबकि मानसिक रूप से अपंग 36 फीसदी बच्चे और बोलने में अक्षम 35 फीसदी बच्चे शिक्षा से वंचित हैं।
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उदाहरण के लिए एक्सेसिबल इंडिया कैंपेन में लक्ष्य रखा गया है कि जुलाई, 2018 तक राष्ट्रीय राजधानी और राज्य की राजधानियों में 50 फीसदी सरकारी इमारतों को विकलांगों के अनुकूल बनाया जाएगा।दिव्यांग बच्चों की शिक्षा को लेकर यह विवाद बना हुआ है कि उनके लिए विशेष रूप से उनके अनुकूल विद्यालय विकसित किए जाएं या उन्हें अन्य सामान्य विद्यालयों में ही शिक्षा दी जाए। लेकिन इसे लेकर भी भारत सरकार के पास कोई स्पष्ट नीति नहीं है।
जहां समाज कल्याण एवं अधिकारिता मंत्रालय विकलांग बच्चों के लिए अलग से स्कूल चलाता है, वहीं मानव संसाधन विकास मंत्रालय सामान्य विद्यालयों में ही विकलांग बच्चों को भी शिक्षा देने की वकालत करता है।
दूसरा बड़ा विवाद खड़ा होता है दिव्यांगों की उच्च शिक्षा में विषय चयन को लेकर।
अधिकतर मामलों में उच्च शिक्षा में विकलांग विद्यार्थियों को उनकी मर्जी के विषय नहीं मिल पाते। हाल ही में दो दृष्टिहीन विद्यार्थियों को मर्जी का विषय चुनने के लिए अदालत की शरण लेनी पड़ी। कृतिका पुरोहित ने फीजियोथेरेपी में अध्ययन हासिल करने के लिए बंबई उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल की, जबकि रेशमा दिलीप ने केरल उच्च न्यायालय से माध्यमिक के बाद विज्ञान विषय देने की गुहार लगाई।
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जेवियर रिसोर्स सेंटर फॉर विजुअली चैलेंज्ड की प्रोजेक्ट कंसल्टेंट नेहा त्रिवेदी कहती हैं, "प्राथमिक दिक्कत तो यह है कि चूंकि शिक्षा केंद्र और राज्य दोनों का विषय है, इसलिए कोई समेकित दिशा-निर्देश तैयार करने के लिए कोई केंद्रीय संस्थान नहीं है।"