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डा. डी.वाई. चंद्रचूड़, यामी गौतम, किरेन रिजिजू, हरदीप सिंह पुरी और विनय सक्सेना ने देखी शाहबानो केस पर बनी फिल्म ‘हक’

दिल्ली में आयोजित फिल्म ‘हक़’ की विशेष स्क्रीनिंग के दौरान मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ भावुक हो उठे। फिल्म ने उन्हें 1985 के शाहबानो केस की याद दिला दी, जब उनके पिता, पूर्व मुख्य न्यायाधीश वाई.वी. चंद्रचूड़ ने महिलाओं के अधिकारों की दिशा में ऐतिहासिक फैसला सुनाया था।
Post Published By: Nidhi Kushwaha
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डा. डी.वाई. चंद्रचूड़, यामी गौतम, किरेन रिजिजू, हरदीप सिंह पुरी और विनय सक्सेना ने देखी शाहबानो केस पर बनी फिल्म ‘हक’

New Delhi: राजधानी दिल्ली के प्रतिष्ठित चाणक्य पैलेस में फिल्म “हक़” की स्क्रीनिंग के दौरान भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने एक ऐतिहासिक और व्यक्तिगत प्रसंग साझा किया। यह अवसर उनके लिए केवल एक सांस्कृतिक कार्यक्रम नहीं, बल्कि गहराई से भावनात्मक क्षण था, क्योंकि यह फिल्म उस संवैधानिक सिद्धांत से जुड़ी थी, जिसका बचाव 40 वर्ष पहले उनके पिता, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति वाई.वी. चंद्रचूड़ ने शाहबानो मामले में किया था।

फिल्म हक की स्टार कास्ट और प्रोडक्शन टीम भी स्क्रीनिंग में मौजूद रही, साथ ही केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू और हरदीप सिंह पुरी भी मौजूद रहे, जिन्होंने फिल्म में न्याय और समानता के सशक्त चित्रण की प्रशंसा की।

पूर्व मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने बताया भावनात्मक क्षण

मुख्य न्यायाधीश ने इसे एक “भावनात्मक और व्यक्तिगत क्षण” बताते हुए कहा कि उनके पिता ने 1985 में शाहबानो मामले में वह फैसला दिया था, जिसने भारतीय समाज में महिलाओं की समानता और अधिकारों की बहस को नई दिशा दी। उस फैसले के लिए उन्हें तीखी राजनीतिक आलोचना और सामाजिक विरोध का सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने कभी अपने संवैधानिक कर्तव्य से समझौता नहीं किया।

उन्होंने कहा कि संसद में उस समय उनके पिता पर सीधा हमला बोला गया था। “उन पर ऐसे फैसले के लिए निशाना साधा गया, जिसमें कहा गया था कि किसी महिला के अधिकार धर्म या जाति के आधार पर सीमित नहीं किए जा सकते। लेकिन उन्होंने उस विरोध के बीच भी संविधान के मूल मूल्य समानता और न्याय के साथ खड़े रहना चुना।

मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने देखी फिल्म हक

शाहबानो मामला और उसकी विरासत

साल 1985 में शाहबानो बेगम बनाम मोहम्मद अहमद खान का मामला भारतीय न्यायिक इतिहास में मील का पत्थर साबित हुआ। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 125 को एक मुस्लिम महिला (शाहबानो बेगम, जिन्हें उनके पति ने तलाक दे दिया था) पर लागू करते हुए यह कहा कि सभी पत्नियों को, चाहे उनका धर्म कोई भी हो, भरण-पोषण का अधिकार प्राप्त है। इस फैसले ने न केवल महिलाओं के अधिकारों को बल दिया बल्कि धार्मिक समुदायों के बीच तीखी बहस भी छेड़ दी।

राजनीतिक दबाव के चलते सरकार ने बाद में मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 पारित किया, जिससे अदालत के निर्णय का कुछ हिस्सा अप्रभावी हो गया।

न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ ने कहा कि ‘हक़’ फिल्म ने इसी सामाजिक और भावनात्मक संघर्ष को गहराई से दिखाया है। उन्होंने कहा, “यह फिल्म केवल एक कहानी नहीं, बल्कि उस पीड़ा और साहस की गवाही है, जिसने भारतीय महिलाओं को बराबरी के अधिकारों की दिशा में आगे बढ़ाया। मुझे विश्वास है कि मेरे पिता, जहां कहीं भी होंगे, इस फिल्म को देखकर संतुष्ट होंगे।”

समान नागरिक संहिता पर विचार

कार्यक्रम के दौरान जब न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ से समान नागरिक संहिता (यूसीसी) के विषय में पूछा गया, तो उन्होंने इसे संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांतों में निहित “आकांक्षी मूल्य” बताया।

उन्होंने कहा, “समान नागरिक संहिता की अवधारणा इस बात का प्रतीक है कि हर नागरिक को, चाहे उसका धर्म या जाति कुछ भी हो, समान व्यक्तिगत अधिकार प्राप्त हों। शाहबानो निर्णय में भी न्यायालय ने इसी दिशा में संकेत किया था।”

फिल्म हक के लीडिंग रोल में नजर आएंगे इमरान हाशमी और यामी गौतम

हालांकि उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि ऐसे किसी भी सुधार की प्रक्रिया संवेदनशील और समावेशी होनी चाहिए। कानून समाज पर थोपे नहीं जा सकते; समाज को अपने भीतर से बदलाव के लिए तैयार होना चाहिए। हमें सभी समुदायों को विश्वास में लेकर आगे बढ़ना होगा।

कानून से परे: मानसिकता में बदलाव की दरकार

मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि लैंगिक समानता केवल क़ानून से नहीं, बल्कि समाज की सोच से आती है। “हम कानून बना सकते हैं, परंतु जब तक लोगों की मानसिकता नहीं बदलेगी, तब तक समानता अधूरी रहेगी। यह सुधार घर से शुरू होती है यह घर से, स्कूलों, कॉलेजों, कार्यस्थलों और राजनीतिक संस्थानों से।

उन्होंने मीडिया की भूमिका की सराहना करते हुए कहा कि सामाजिक दृष्टिकोण को आकार देने में पत्रकारिता एक अहम माध्यम है। उन्होंने सामाजिक परिवर्तन को एक सामूहिक नैतिक परियोजना बताया, जिसके लिए सहानुभूति, शिक्षा और निरंतर जन संवाद की आवश्यकता है।

धर्म और समानता का संतुलन

वहीं जब मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ से पूछा गया कि क्या धर्म और समानता जैसे दो सिद्धांत एक साथ रह सकते हैं, तो उन्होंने कहा, “भारत का संविधान इन दोनों को समान महत्व देता है। धर्म का पालन करने का अधिकार और समानता का अधिकार, दोनों हमारे संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा हैं। शासन की सबसे बड़ी चुनौती इन्हें संतुलित करना है।”

एक ऐतिहासिक पुष्टि का क्षण

मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ के लिए ‘हक़’ की स्क्रीनिंग किसी सामान्य फिल्म शो से अधिक थी। यह एक तरह का “ऐतिहासिक पुनर्मिलन” था, उस विचार से, जिसे उनके पिता ने चार दशक पहले अदालत के कटघरे में संरक्षित किया था।

उन्होंने कहा, “इन 40 वर्षों में भारत ने लंबा सफर तय किया है। हम आज भी समानता और न्याय की लड़ाई लड़ रहे हैं, लेकिन अब यह संघर्ष अधिक जागरूक और संवादशील समाज के साथ आगे बढ़ रहा है। ‘हक़’ केवल एक फिल्म नहीं, बल्कि उस व्यक्ति के साहस और विश्वास का प्रमाण है जिसने तमाम विरोधों के बावजूद संविधान के साथ खड़ा रहना चुना।

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