New Delhi: हिंदू पंचांग के अनुसार आषाढ़ मास का आगमन वर्षा ऋतु की शुरुआत का संकेत होता है। इस मौसम में कड़वे तेल जैसे सरसों का तेल, नीम का तेल या करंज का तेल से शरीर की मालिश करने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। यह परंपरा केवल धार्मिक कृत्य नहीं बल्कि इसके पीछे आयुर्वेदिक तर्क, मौसमी स्वास्थ्य लाभ और मानसिक शुद्धि का गहरा संबंध है।
आयुर्वेदिक दृष्टिकोण
आयुर्वेद के अनुसार वर्षा ऋतु में वात और कफ दोषों का असंतुलन बढ़ जाता है। आषाढ़ मास में नमी और वातावरण में बदलाव के कारण शरीर में जोड़ों का दर्द, पाचन संबंधी समस्याएं और त्वचा संक्रमण जैसे विकार बढ़ सकते हैं।
- कड़वे तेलों में एंटी-बैक्टीरियल, एंटी-फंगल और डिटॉक्सिफाइंग गुण होते हैं जो इन समस्याओं से शरीर को बचाते हैं।
- सरसों का तेल गर्म तासीर वाला होता है, जिससे शरीर में जमे हुए दोष बाहर निकलते हैं और रक्त संचार बेहतर होता है।
- नीम का तेल त्वचा रोगों से बचाव करता है और शरीर को रोगाणुओं से सुरक्षित रखता है।
धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यता
हिंदू धर्म में आषाढ़ का महीना आध्यात्मिक साधना, संयम और शरीर शुद्धि के लिए उपयुक्त माना जाता है। कई लोग इस महीने व्रत, उपवास और आयुर्वेदिक नियमों का पालन करते हैं। शनिवार को कड़वा तेल लगाकर स्नान करना विशेष फलदायी माना गया है। इसे शनि दोष निवारण और नकारात्मक ऊर्जा से मुक्ति का उपाय माना जाता है। पुराणों और आयुर्वेद ग्रंथों में उल्लेख है कि शरीर को तेल से अभिषिक्त करना तप और आत्मशुद्धि का प्रतीक है।
मौसमी विज्ञान और स्वास्थ्य
आषाढ़ मास में उमस और नमी बढ़ जाती है, जिससे त्वचा में संक्रमण, खुजली, फंगल इन्फेक्शन आदि की समस्याएं सामान्य हैं। कड़वे तेल की मालिश त्वचा को पोषण देने के साथ-साथ बाहरी रोगाणुओं से रक्षा करती है। यह शरीर के तापमान को संतुलित करता है और मानसून में होने वाली थकान और चिड़चिड़ेपन को भी कम करता है।
पारंपरिक उपायों की आधुनिक प्रासंगिकता
आज जब रासायनिक उत्पादों का अत्यधिक उपयोग स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक हो रहा है, ऐसे में प्राकृतिक और पारंपरिक उपायों की ओर लौटना जरूरी हो गया है। कड़वा तेल न केवल एक औषधीय उपाय है, बल्कि यह स्वस्थ जीवनशैली, मानसिक संतुलन और आध्यात्मिक अनुशासन का प्रतीक भी है।
डिस्क्लेमर
यह लेख पारंपरिक मान्यताओं, आयुर्वेदिक सिद्धांतों और सामान्य जानकारी पर आधारित है।

