New Delhi: 15 अगस्त 2025 को भारत ने अपनी आज़ादी के 79 साल पूरे कर लिए। आज़ाद भारत में जन्मे लोग भी अब 78 वर्ष या उससे अधिक उम्र के हो चुके हैं। लेकिन 15 अगस्त का दिन ऐसा है जो हर भारतीय के मन को तरोताज़ा कर देता है। ये सिर्फ एक तारीख नहीं है, ये वो एहसास है जो हर साल आते ही देश को एक नई ऊर्जा से भर देता है। 14 अगस्त 1947 की रात और 15 अगस्त की सुबह का जोश, जुनून और उल्लास आज भी लोगों के दिलों में जस का तस है। वो रात सिर्फ सत्ता के हस्तांतरण की नहीं थी, बल्कि एक पूरी पीढ़ी के सपनों के सच होने की रात थी। वो उत्सव, वो गर्व, वो आंसू और वो मुस्कान… सब कुछ आज भी उतना ही जिंदा है जितना उस दिन था।
आजादी के साथ ही आया था बंटवारे का दर्द
हालांकि ये बात भी उतनी ही सच है कि उस आज़ादी के साथ ही देश ने विभाजन का गहरा जख्म भी झेला था। एक ओर आज़ादी का जश्न था, तो दूसरी ओर हिन्दू-मुस्लिम दंगों का तांडव, भुखमरी, अनिश्चितता और रक्तपात भी। देश की तीन रियासतें हैदराबाद, भोपाल और कश्मीर अभी भारत का हिस्सा नहीं बनी थीं। बाद में सरदार वल्लभ भाई पटेल ने दृढ़ इच्छाशक्ति और सैन्य कार्रवाई के ज़रिए उन्हें भारत में शामिल कराया। लेकिन इन सबके बावजूद उस समय का जनसामान्य आज़ादी की भावना में डूबा हुआ था।
देश की राजधानी दिल्ली में था उत्साह का ज्वार
दिल्ली उस रात कुछ और ही बन गई थी। लाल किला, इंडिया गेट, कनॉट प्लेस हर जगह जनसैलाब उमड़ पड़ा था। लोग साइकिल, बग्घी, तांगा, बैलगाड़ी, ट्रक और यहां तक कि पैदल भी दिल्ली की ओर दौड़े चले आ रहे थे। दिल्ली की सड़कों, छतों और खिड़कियों तक पर लोग लटके हुए थे, बस उस ऐतिहासिक क्षण का गवाह बनने के लिए। गाँव-गाँव, गली-गली, घर-घर एक ही उमंग थी “अब हम आज़ाद हैं!” महिलाएं नई साड़ियाँ पहनकर, पुरुष नई पगड़ियाँ बांधकर आज़ादी के इस उत्सव में शामिल हो रहे थे। लोगों ने अपने-अपने ढंग से आज़ादी को महसूस किया, किसी ने बसों में टिकट न लेकर विरोध जताया, तो कोई वंदेमातरम के नारों में अपनी खुशी उड़ेल रहा था।
वो ऐतिहासिक भाषण और आसमान से बरसती खुशी
14 अगस्त की रात जब पंडित नेहरू ने संविधान सभा को संबोधित किया और “ट्रिस्ट विद डेस्टिनी” भाषण दिया, उस वक्त हजारों लोग बाहर खड़े होकर नारे लगा रहे थे। उस दौरान हल्की बारिश भी हुई, मानो इंद्रदेव भी आज़ादी की खुशी में सम्मिलित हो रहे हों। लेकिन आज़ादी के इस रात के नायक केवल नेहरू नहीं थे। महात्मा गांधी उस वक्त कोलकाता में दंगों को शांत कराने में जुटे थे। उन्होंने न कोई भाषण दिया, न कोई जश्न मनाया, बल्कि इंसानियत को बचाने के लिए अपने जीवन को समर्पित कर दिया।
बिस्मिल्लाह खान की शहनाई और आज़ादी का सूरज
15 अगस्त की सुबह को और भी ऐतिहासिक बना दिया उस्ताद बिस्मिल्लाह खान ने, जिन्होंने पंडित नेहरू के आग्रह पर शहनाई बजाकर आज़ादी के सूरज का स्वागत किया। यह वह क्षण था जब देश की आत्मा आज़ादी की पहली सांस ले रही थी। लोग एक-दूसरे को “साहब” कहकर संबोधित कर रहे थे, कोई बड़ा-छोटा नहीं था, सब बराबर थे। कई जेलों से कैदियों को रिहा किया गया। शिमला की माल रोड, जहां आम लोगों को प्रवेश नहीं था, उस दिन आम जन वहां दौड़ते हुए दिखे। हर जगह बस एक ही बात थी- आज हम आज़ाद हैं।
अंतरराष्ट्रीय मान्यता और बदलते प्रतीक
15 अगस्त को न केवल भारत में, बल्कि संयुक्त राष्ट्र संघ के मुख्यालय न्यूयॉर्क में भी तिरंगा फहराया गया। हालांकि उस दिन राष्ट्रगान ‘जन गण मन’ को आधिकारिक दर्जा नहीं मिला था यह 1950 में हुआ। लेकिन लोगों के दिलों पर तब भी यह गीत और ‘वंदे मातरम’ छाया हुआ था।
लॉर्ड माउंटबेटन का सुरक्षा संकट और भीड़ का सैलाब
शाम को जब इंडिया गेट पर तिरंगा फहराने का आयोजन हुआ तो अनुमान था कि करीब 30,000 लोग आएंगे, लेकिन वहां 5 लाख से अधिक लोग पहुँच गए। भीड़ के दबाव में लॉर्ड माउंटबेटन के अंगरक्षक का घोड़ा गिर गया, लेकिन कुछ देर बाद घोड़ा खुद उठ खड़ा हुआ, यह प्रतीक बन गया उस दिन की जिजीविषा का।